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________________ न होय ! अवश्य होय || ७३ ॥ विद्वानोए संसारिक सघळां सुखोने अनात्मीय जाणीने सदा जिनेन्द्र भगवाने कहेला आत्मीय धर्मने धारण करवो जोइए ॥ ७४ ॥ जेओ क्षमाथी क्रोधने, मार्दवथी मानने, आर्जवथी मायाने अने संतोषवडे लोभने नष्ट करी दे छे, तेनेज धर्म थाय छें ॥ ७५ ॥ तथा शुद्ध ब्रह्मचर्य धारण करवावाळाने, भगवाननी पूजा करवावाळाने, उत्तम पात्रोने दान पावलाने, पर्व (२-१-८-११-१४ ) ने दिवसे उपवास धारण करवावाळाने, जीवोनी रक्षा करवावालाने, सत्य वचन बोलवावालाने, अदत्त ग्रहण न करवावालाने, राक्षसीनी माफक स्त्रीनो त्याग करवावालाने, * सन्तोषरूपी अमृतना पानथी परीग्रह तजवावाळा धीर वीरोने, वात्सल्य [ धर्मेवर प्रीति ] करवावाळाने अने विनयी पुरुषोनेज पवित्र धर्म थाय ॥ ७६-७७-७८ ॥ जे कोई जिनेंद्र भगवाने कहेला धर्मने चित्तथी धारण करेछे, तेओ आ महा दुःखदायक संसाररूपी दावानलने जलदीथी तरी जाय छे ॥ ७९ ॥ जे प्रमाणे तपेली पृथ्वि मेघना जळथी शीतल थई जाय छे तेम योगीराजनाआप्रमाणे धर्मोपदेशथी सघली सभा तृप्त थई गई ॥ ८० ॥ अत्रविज्ञान छे नेत्र जेमनां, वात्सल्य कार्यमा कुशल, धर्मोपदेश आपवामां सदा तैयार एवा ते योगिराजे जितशत्रुना पुत्र मनोवेगने जैनमति जाणीने नीचे प्रमाणे कुशल समाचार पूछया, केमके धर्मात्मा पुरुषोने पण भव्य पुरुषोने माटे पक्षपात होय छे ॥ ८१ ॥ " हे भाई, धर्म कार्योंमां तत्पर तमारा पिता स्वजन परिवार सहित कुशलरूप तो छे केनी ? " आ प्रश्न सांभलीने विद्याधरना पुत्र मनोवगे पसन्नचित्त थईने आ प्रमाणे कह्युं के ॥ ८२ ॥ हे भगवान ! जेनी रक्षा हमेशा आपना चरणाविंद करे छे, ते विद्याधर पति जितशत्रुने केवी रीते विघ्न थई शके ? केमके जेनी रक्षा साक्षात
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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