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________________ कषायशत्रु शमसाधुयोधाः कुर्वन्तु ते सिद्भिवधूवरत्वं ॥ ५ ॥ यस्याः प्रसादन विनीतचेता दुर्लध्यशास्त्रार्णवपारमेति । सरस्वति मे विदधातु सिद्धि सा चिन्तिता कामदुधेव धेनुः ॥ ६ ॥ स्तवैर मीभिर्ममधूयमानाः नश्यन्तु विघ्नाः क्षणतः समस्ताः । उद्वेजयन्तो जनतां प्रवृद्धः सद्यः समरिरिव रेणुपुञ्जाः ॥ ७ ॥ दोहरो. पंचपरमपद बंद करि, धर्म परिक्षा ग्रन्थ । लिखू वचनिकामय सरल, जो शिवपुरको पन्थ ॥ जेनो ज्ञानरुपी दीवो त्रणं वातवलयरुपी उंचा मनोहर कोटवाला आ जगतरुपी घरने चारे तरफ अजवालं करे छे, ते तीर्थङ्कर भगवान् आपणी कल्याणरुपी लक्ष्मीने माटे कारणरुप थाओ ॥ १ ॥ जेओ सघळां कर्मोना नाश थवाथी पूज्य, अति पवित्र अने पारकी पीडाथी रहित पोताना स्वरुपने प्राप्त थइने त्रण लोकमां शिरोमणिभूत थाय छे, ते सिद्ध भगवान मारी मुक्तिने माटे कारणभूत थाओ, ॥ २ ॥ जेना वचनरुपी किरणोथी भव्य पुरुषोना मनरुपी कमल प्रफुल्लित थइने फरीथी संकोचपणाने प्राप्त थतां नथी अने दोषरुपी रात्रीना उदयने दूर करवावाला छे, एवा आचार्योमां सूर्य समान आचार्य परमेष्टी मारी वर्तणुकने निर्दोष करो ॥ ३ ॥ जे प्रमाणे भक्तिमान पुत्रने तेना माता पिता धन वगेरे सम्पत्ति आपेछे ते प्रमाणे पोताना शिष्यवर्गोने धार्मिक शिक्षारुपी धन आपवावाला उपाध्यायजी मारा सघळां दुख हरो ॥ ४ ॥ जेओ त्रण जगतने पीडा करवावाला कषायरुपी शत्रुने समता शील वगेरे
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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