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________________ उत्तर : गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्भकार के समान है । जिसप्रकार कुम्हार कुंभ स्थापना के लिये शुभ व श्रेष्ठ घडे बनाता है, जो मांगलिक रुप में पूजे जाते हैं तथा मदिरा आदि भरने के लिये मिट्टी के बर्तन भी बनाता है, जो उत्तम कार्यों के लिये निन्दनीय होते हैं । गोत्र कर्म भी जीव को उच्च अथवा नीच कुल में जन्म दिलाता है । ११२९) उच्चगोत्र कर्म बंध के कारण क्या हैं ? उत्तर : (१) दूसरों के सद्गुणों की प्रशंसा करना । (२) अपने दुर्गुणों की निंदा करना । (३) अपने सद्गुणों को छुपाना । (४) दूसरे के सद्गुणों को प्रकाशित करना । (५) नम्रवृत्ति - पूज्यजनों के प्रति विनम्रता रखना । (६) अनुत्सेक - विशिष्ट श्रुत अथवा संपदा प्राप्त होने पर भी गर्व न करना । १९३०) नीच गोत्र कर्मबंध के कारण क्या है ? उत्तर : (१) परनिन्दा, (२) आत्मप्रशंसा, (३) पर - सद्गुण आच्छादन, (४) पर - दुर्गुण प्रकाशन । ११३१) गोत्र कर्म की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति कितनी ? उत्तर : उत्कृष्ट २० कोडाकोडी सागरोपम तथा जघन्य ८ मुहूर्त्त । १९३२) गोत्र कर्म का उत्कृष्ट तथा जघन्य अबाधाकाल कितना ? उत्तर : उत्कृष्ट दो हजार वर्ष तथा जघन्य अंतर्मुहूर्त्त । १९३३) गोत्रकर्म के क्षय होने पर आत्मा में कौनसा गुण प्रकट होता है ? उत्तर : अगुरुलघुत्व । १९३४) अंतराय कर्म का कार्य क्या है ? उत्तर : अंतराय कर्म भंडारी के समान है । जिस प्रकार राजा की दान देने की इच्छा होते हुए भी भण्डारी खजाने में कमी बताकर रोक देता है, उसी प्रकार अन्तराय कर्म दूर हुए बिना जीव को इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होती । श्री नवतत्त्व प्रकरण ३५५
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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