SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३) दर्शनान्तराय - दर्शन को प्राप्त करने में अन्तराय डालना । (४) दर्शनप्रद्वेष - दर्शन या दर्शनी से द्वेष रखना । (५) दर्शन आशातना - दर्शन तथा दर्शनी की अवहेलना । (६) दर्शन विसंवादन - दर्शन तथा दर्शनी के वचनों में विसंवाद दिखाना। १०९६) दर्शनावरणीय कर्म नष्ट होने पर आत्मा में कौनसा गुण प्रकट होता है ? उत्तर : अनंत दर्शन । १०९७) वेदनीय कर्म किसके समान है ? उत्तर : वेदनीय कर्म मधुलिप्त तलवार की धार के समान है। जिसप्रकार मधु से लिप्त तलवार की धार को चाटने से स्वाद मधुर लगता है, वह शाता वेदनीय है । परंतु जीभ कट जाती है, उसके समान अशाता वेदनीय १०९८) वेदनीय कर्म की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति कितनी ? उत्तर : उत्कृष्ट स्थिति ३० कोडाकोडी सागरोपम तथा जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त १०९९) वेदनीय कर्म का उत्कृष्ट तथा जघन्य अबाधाकाल कितना ? उत्तर : उत्कृष्ट ३ हजार वर्ष तथा जघन्य एक अंतर्मुहूर्त का अबाधाकाल है। ११००) शातावेदनीय कर्मबंध के कारण क्या है ? उत्तर : (१) भावानुकम्पा - प्राणियों पर अनुकंपा करने से। (२) व्रत्यनुकम्पा - अल्पांश या सर्वांश व्रतधारी पर अनुकंपा/दया करने से । (४) सराग संयम से । (३) दान - दुःखियों को दान देने से । (५) संयमासंयम - आंशिक संयम स्वीकार करना । (६) शौच अर्थात् मन, वचन, काया की पवित्रता से अथवा लोभवृत्ति आदि दोषों का शमन करने से । (७) अकाम निर्जरा से । (८) बालतप से श्री नवतत्त्व प्रकरण ३५१
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy