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________________ उदीरणा का अभाव है परन्तु उद्वर्तना, अपवर्तना तथा संक्रमण की संभावना हो, वह उपशमन है । जैसे अंगारे को राख से इसप्रकार आच्छादित कर देना, जिससे वह कार्य न कर सके । वैसे ही उपशमन क्रिया से कर्म को इसप्रकार दबा देना कि जिससे वह अपना फल नहीं दे सके । किन्तु जैसे आवरण हटते ही अंगारे जलाने लगते है, वैसे ही उपशम भाव से दूर होते ही उपशान्त कर्म उदय में आकर अपना फल देना प्रारंभ कर देते हैं। १०८३) निधत्ति किसे कहते हैं ? उत्तर : जिसमें कर्मों का उदय तथा संक्रमण न हो सके किन्तु उद्वर्तन अपवर्तन की संभावना हो, उसे निधत्ति कहते हैं । १०८४) निकाचित किसे कहते हैं ? उत्तर : जिसमें उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण तथा उदीरणा, इन चारों का अभाव हो, वह निकाचित है। अर्थात् आत्मा ने जिस कर्म का जिस रुप में बन्ध किया है, उसे उसी रुप में अनिवार्यतः भोगना । १०८५) अबाधाकाल किसे कहते हैं ? उत्तर : कर्म बंधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार का फल न देना, ___ अबाधाकाल है । अबाधा अर्थात् बाधा (फल) उपस्थित न करना । १०८६) अबाधाकाल का परिमाण क्या है ? उत्तर : प्रत्येक कर्म का भिन्न भिन्न अबाधाकाल होता है। एक कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति पर सौ वर्ष का अबाधा काल होता है। इसप्रकार जिस कर्म की जितनी स्थिति है, उसका उतने ही सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति ३० कोडाकोडी सागरोपम की है, तो उसका अबाधाकाल (३००० वर्ष) तीस सौ वर्ष का है। १०८७) ज्ञानावरणीय कर्म की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति कितनी है ? उत्तर : उत्कृष्ट ३० कोडाकोडी सागरोपम तथा जघन्य एक अंतर्मुहूर्त । १०८८) ज्ञानावरणीय कर्म का उत्कृष्ट तथा जघन्य अबाधाकाल कितना है ? ------ ------------ श्री नवतत्त्व प्रकरण ३४९
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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