SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. अजीव - जीव से विपरीत स्वभाव एवं विपरीत लक्षण वाला अर्थात् जो प्राण और चैतन्य रहित है, जिसमें सुख-दुःख का अनुभव करने की शक्ति नहीं है, ज्ञान-दर्शन- चारित्रादि गुणों से जो रहित हैं, वह अजीव तत्त्व है। ३. पुण्य जीव जिसके द्वारा सुख भोगता है, आमोद-प्रमोद के साधन और अनुकूलताओं को प्राप्त करता है, वह पुण्य कहलाता है । पुनाति अर्थात् जो जीव को पवित्र करें, वह पुण्य तत्त्व है । ४. पाप - जो आत्मा को मलिन करें, जिसकी अशुभ प्रकृति हो अथवा जिसके द्वारा जीव हिंसा, अत्याचार, चोरी, जुआ आदि करें, वह पाप कहलाता है । पातयति नरकादिषु अर्थात् जो जीव को नरकादि दुर्गतियों में डालता है, वह पाप है । ६. को धारण करता है, वह जीव है। स्वयं के शुभाशुभ कर्मों का कर्त्ता एवं भोक्ता तथा ज्ञानं, दर्शन, चारित्र गुणों से एवं चैतन्य लक्षण से युक्त है, वह जीव कहलाता है । ७. ८. २६ के L आश्रव - जिसके माध्यम से आत्मा में शुभाशुभ कर्मों का आगमन हो, उसे आश्रव कहते हैं। अथवा आश्रीयते, उपार्ज्यते कर्म एभिः इति आश्रवाः अर्थात् जिसके द्वारा जीव कर्म का उपार्जन करें, वह आश्रव है । संवर - आश्रव का विरोधी तत्त्व संवर है । आत्मा में आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर कहलाता है । 'संव्रीयते कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः' अर्थात् कर्म और हिंसादि कर्मबंध के कारण जिस आत्म परिणाम द्वारा संवृत हो जाय, उसे संवर कहते है निर्जरा - 'निर्ज्जरणं, विशरणं परिशटनं निर्ज्जरा' अर्थात् आत्मा से बंधे हुए शुभाशुभ कर्मपुद्गलों का विनाश हो जाना, आत्मा से निर्जरित होना या झड जाना निर्जरा तत्त्व कहलाता है । 1 बन्ध - जीव के साथ क्षीर- नीर (दुध - पानी) अथवा लोहाग्नि (लोहे का गोला व अग्नि) की तरह कर्मों का परस्पर गाढ संबंध होना, बंध तत्त्व है । श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy