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________________ हो सके, उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते है । ६४५) वीर्यान्तराय कर्म किसे कहते है ? उत्तर : जिस कर्म के उदय से जीव शक्ति के होने पर भी, उसका उपयोग नही कर पाता है, धर्मानुष्ठान में अपनी शक्ति का सदुपयोग नहीं हो पाता है, उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते है । ६४६ ) भोग तथा उपभोग में क्या अंतर है ? उत्तर : एक बार भोगने योग्य पदार्थ भोग्य कहलाते है - जैसे - भोजन, पानी आदि । बार-बार भोगने योग्य पदार्थ उपभोग्य कहलाते है, जैसे- वस्त्र, पात्र, आभूषण, गृह आदि । ६४७) आठों कर्मों की बंध योग्य प्रकृतियाँ कितनी हैं ? उत्तर : आठों कर्मों की बंध योग्य प्रकृतियाँ १२० हैं । ६४८ ) पापतत्त्व के ८२ तथा पुण्य तत्त्व के ४२, ये कुल १२४ भेद होते है, तो ४ प्रकृतियाँ कौन सी अतिरिक्त है ? उत्तर : पाप तथा पुण्य दोनों में ही वर्ण चतुष्क को गिना गया है में | पुण्य शुभ वर्ण चतुष्क तथा पाप में अशुभ वर्णचतुष्क गिनने से ४ प्रकृति अतिरिक्त है । ४ को बाद करने पर १२० प्रकृतियों का बंध दोनों तत्त्वों में संग्रहित है । ६४९) पाप प्रकृति को जानने का उद्देश्य क्या है ? उत्तर : पाप तत्त्व भी कर्मजन्य है । इसके द्वारा जीव को दुःख की प्राप्ति होती है । पाप अशुभ कर्म स्वरूप है, लेकिन स्वस्वरूप नहीं है । यह तत्त्व आत्मा को अपने स्वरूप से विचलित करने वाला है । पाप प्रकृति के ८२ भेदों को जानकर उनके बंध के कारण ऐसे १८ पापस्थानकों का त्याग कर हम अपने स्व-स्वरूप की प्राप्ति कर सके । इसलिए इस हेय ऐसे पापतत्त्व को छोड़कर पर से हटकर और स्व में बसकर अपना व अन्य जीवात्माओं का कल्याण करना, यही पाप तत्त्व को जानने का उद्देश्य है । २७० श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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