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________________ प्रत्याख्यानीय - क्रोध-मान-माया-लोभ संज्वलन - क्रोध-मान-माया-लोभ ९ नो-कषाय : हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ४८. आयुष्य कर्म की - १ : नरकायुष्य ४९-८२. नाम कर्म की - ३४ : तिर्यंचद्विक : तिर्यंच गति, तिर्यंचानुपूर्वी नरकद्विक : नरक गति, नरकानुपूर्वी जाति चतुष्क : एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, अशुभ विहायोगति, उपघात ५ संघयण : ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका, सेवार्त ५ संस्थान : न्यग्रोध परिमंडल, सादि, कुब्ज, वामन, हुंडक वर्णचतुष्क-४ वर्ण-गंध-रस-स्पर्श, स्थावर दशक-१० - स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अपयश ५७०) ज्ञानावरणीय कर्म किसे कहते है ? उत्तर : जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करे, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते है। ५७१) दर्शनावरणीय कर्म किसे कहते है ? उत्तर : जो आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करे, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते है। ५७२ ) वेदनीय कर्म किसे कहते है ? उत्तर : जिस कर्म के द्वारा आत्मा को सांसारिक, इन्द्रियजन्य सुख-दुःख का ___ अनुभव हो, उसे वेदनीय कर्म कहते है। ५७३ ) मोहनीय कर्म किसे कहते है ? उत्तर : जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व तथा चारित्र गुण का घात करे, जो जीव को विषयों में आसक्त करें, उसे मोहनीय कर्म कहते है। २५६ श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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