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________________ दु - दो -तिसय - एक सौ तीन अट्ठवीस - अट्ठाईस दु - दो . चउ - चार पणविहं - पांच (प्रकार है) भावार्थ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र तथा अंतराय कर्म क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, एक सौ तीन, दो तथा पाँच भेद वाले हैं ॥३९॥ . विशेष विवेचन । प्रस्तुत गाथा में आठों कर्मों की भेद-प्रभेद सहित १५८ प्रकृतियों का संख्या निर्देश है। इन समस्त प्रकृतियों का वर्णन विश्लेषण हम पुण्य तथा पाप तत्त्व के भेदों में कर आये हैं। पुण्य तत्त्व के ४२ तथा पाप तत्त्व के ८२, ऐसे कुल दोनों के १२४ भेद होते हैं । इन दोनों तत्त्वों के वर्णन में वर्णचतुष्क को गिना गया है। इसे एक ही बार गिनने पर १२० प्रकृतियाँ होती है। वर्णचतुष्क के १६ उत्तरभेद जोडने पर १३६ कर्म प्रकृतियाँ होती है। नामकर्म में शरीर के ५ भेद गिनाये हैं, इनके साथ १५ बंधन तथा ५ संघातन ऐसे २० भेद १३६ में जोडने पर १३६ + २०० = १५६ तथा मोहनीय कर्म के सम्यक्त्व मोहनीय तथा मिश्र मोहनीय, ये २ भेद जोडने पर कुल १५८ प्रकृतियाँ होती हैं । इस गिनती से मोहनीय कर्म में २ प्रकृतियाँ बढने से २६ की जगह २८ तथा नाम कर्म की ६७ की जगह १०३ कर्म प्रकृतियाँ होती है। ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय - वेदनीय - मोहनीय - आयुष्य - नाम - १०३ गोत्र - अंतराय - कुल प्रकृतियाँ १५८ श्री नवतत्त्व प्रकरण م م بہ ه ه ه به १२४
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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