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________________ ३२२ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. रण्यमां करेला विलापनी बराबर (कृत) कर्यु. चक्रे मया सत्स्वपि कामधेनु, कल्पद्रु चिन्तामणिषु स्पृहार्तिः । न जैनधर्मे स्फुट शर्मदेऽपि, जिनेश मे पश्य विमूढनावम् ।। अर्थः-(मया) में (असत्सु) असत्य एवा (कामधेनुकल्पचिन्तामणिषु) कामधेनु, कल्प वृक्ष अने चिंतामणि रत्नने विषे (अपि) पण (स्पृहार्तिः) वांगनी पीमा (चक्रे) करी. प रंतु (स्फुटशर्म दे) प्रगट सुख आपनार एवा (अपि) पण (जैनधर्मे) जैन धर्म ने विषे (न) वांग करी नहीं. माटे (जिनेश) हे जिनेश्वर ! (मे) मारा (विमूढनावं ) मूढपणाने (पश्य) तमे जुन ॥१५॥ ___ सन्नोगलीला न च रोगकीला, धना गमो नो निधनागमश्च । दारा न कारा न रकस्य चित्ते, व्यचिंति नित्यं मयकाधमेन ॥ अर्थः-(अधमेन) अधम एवा (मयका) में (नित्यं) हमेशां (चित्ते) चित्तमां (सनो
SR No.022326
Book TitleChaityavandanadi Bhashya Trayam Balavbodh Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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