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________________ श्री रत्नाकरपंचविंशिका. ३१ मारा मनमां (यः) जे (रागलवः) रागनो लेश । विलग्नः ) लागेलो, ते (शुसिान्त पयोधिमध्ये) पवित्र सिमान्त रूपी समुश्मां (धौतोऽपि ) धोया बतां पण (न अगात् ) गयो नहीं तो ( तारक ) हे तारनार प्रन्नु ! (किं का रणं ) तेनुं शुं कारण ? ॥ १५॥ अंगं न चंगं न गणो गुणानां, न नि मलः कोऽपि कलाविलासः । स्फुरत्पन्ना न प्रभुता च का।प, तथाप्यहंकारकदर्थि तोऽहम् ॥१५॥ अर्थः-मारूं (अंग) शरीर (चंगं) सुंदर (न) नथी, वली (गुणानां) गुणोनो ( गणः) समूह (न) नथी. वली (निर्मलः) निर्मळ एवो (कोऽपि) कोई पण (कलाविलासः) कलानो विलास (न) नथी (च) वली (स्फुरत्प्रन्ना) स्फुरायमान कांति जेनी एवी (कापि ) कांई पण (प्रनता) प्रनता (न) नथी. (तथापि ) तो पण (अहं) हुं (अहंका रकदर्थितः) अहंकारथी कदर्थना पामेलो बु॥१५॥
SR No.022326
Book TitleChaityavandanadi Bhashya Trayam Balavbodh Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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