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देववंदन नाष्य अर्थसहित. १॥ हवे पांचमुं, अवस्थात्रिक कहे :
जाविऊ अवतियं, पिंमत पयन रूव रहियत्तं ॥ बनमन केवलितं, सिछत्तं चेव तस्सबो ॥११॥
अर्थः-हे नव्यजीव ! तुं (जाविध के० ) नाव्य. श्रीनगवंतनी (अवनतियं के ) त्रण अवस्था प्रत्ये एटले त्र अवस्थानी नावना ना वियें, ते कहे . प्रथम (मिब के ) पिंमस्था वस्था नावीयें, बीजी (पय के० ) पदस्थ अव स्था नावोयें, त्रीजी (रूवरहियत्तं के ) रूपर हितत्वं एटले रूपरहित एवी रूपातीत अवस्था नावीयें, तिहां जे पिंमस्थावस्था ते ( उनमल के० ) बद्मस्थावस्थायें नावियें, तीर्थंकर पदनां पिंम जे शरीर तीर्थंकर नाम कर्मयोग्य , ते मिस्थावस्था के अने पदस्थावस्था ते ( केवलितं के) केवलज्ञान अवस्थायें नावीयें एटले केवल ज्ञान पाम्या पी प्रमुपदस्थ थया ले, तथा रूपा तीतावस्था ते (सिनं के) सित्वं एटले सि