SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी-भाव सहित (जीवनकी अथिरता)। ६९ ही हुआ करता है । जो कि इस तरह प्रतिदिन अंत होनेकासा अभ्यास किया करता है वह कहांतक इस शरीरमें ठहरेगा, बहुत ही शीघ्र कभी न कभी सचमुच ही निकल जायगा । अथवा जो सदा ऐसा धोखा देता है उसका कहांतक यह विश्वास किया जा सकता है कि यह कभी सचमुच ही न निकल जायगा? वह तो कभी न कभी अवश्य निकलेगा। इसलिये उसके रहते रहते जो करना हो वह करलेना चाहिये । करना यही है कि विषयसे प्रीति हटाकर तपश्चरणद्वारा परभवका सुधार करलिया जाय । इस प्रकार शरीरसे आत्माके हितकी आशा रखना सर्वथा निर्मूल है। .. अब यह विचार करिये कि कुटुंबसे आत्महित होता है या नहीं ? सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्य,माप्तं त्वया किमपि बन्धुजनाद्धितार्थम् । एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् , संभूय कायमहितं तव भस्मयन्ति ॥ ८३ ॥ अर्थः-अरे जीव, तूं सांच कह, इस जन्मभरमें तुझै बन्धुजनोंसे होने योग्य क्या कुछ थोडासा भी उपकार आजतक कभी मिला है ? सच्चा बंधु तो वही कहाता है जो निरंतर कुछ भी उपकार करता रहता हो । हां, इतना उपकार बंधुजनोंसे अवश्य हुआ करता है कि जो जीवको दुःख देनेवाला अतएव जीवका शत्रु था उस शरीरको मरनेके पीछे वे सब मिलकर जलादेते हैं। तेरे भी शरीरको इसी तरह तेरे बंधुजन एक दिन सब मिलकर जलादेंगे । इतना तेरा उपकार उनके हाथसे अवश्य हुआ समझना चाहिये; क्योंकि, जो दुःख देनेबाला शत्रु होता है उस शत्रुसे जो दुःखका कुछ भी बदला ले वही अपना मित्र तथा बंधु समझना चाहिये। परंतु तू यदि यथार्थ विचार करेगा तो तुझै विश्वास होगा कि मेरे जीतेजी बंधुओंने मेरा कभी कुछ भी हित नहीं किया । सभी बंधु अपने अपने मतलवके गरजी हैं । जो तेरे कुछ भी उपकारी नहीं हैं उनके साथ तू क्यों असमान स्नेह करता है ?
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy