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________________ आत्मानुशासन. और वह सांठा यों ही खराव जाता है । ऐसी हालतमें वह मनुष्य बुद्धिमान समझा जायगा कि जो उसे यों ही न खोकर कहींपर बोदे, जिससे कि आगामी बहुतसे अच्छे अच्छे सांटे खानेके लायक उस एक सडे हुए सांठेसे उत्पन्न हो सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्यजीवन भी एक सडे हुए सांठेके तुल्य है । इसमें गांठोंकी तरह तो बीच बीचमें अनेक आपत्तियां आया करती हैं और बुढापा ऊपरी अँगोलेकी तरह सर्वथा नीरस होता ही है, जिसमें कि सर्व इंद्रियां और शक्ति क्षीण हो जानेसे किसी भी भोग्य विषयका सेवन नहीं होपाता है । रही बाल्य अवस्था, वह भी अत्यंत अज्ञानपूर्ण होनेसे सुखसाधक नहीं है । यौवनके सयय जो आपत्तिरूप गांठोंके बीच बीचमें कुछ थोडीसी भोग्य अवस्था है वह भी जब कि क्षुधा, व्रण, फोडे, विशीर्ण होना, कुष्ट रोग होजाना तथा व्रणोंमें सडकर कीडे पडजाना इत्यादि भीषण रोगोंसे व्याप्त है तो उसमें भी रति करनेसे क्या सुख होगा ? कुछ भी नहीं । इसीलिये यह मनुष्यभव काने सांठेकी तरह है । जिस तरह सांठेका नाम अच्छा मालूम पडता है परंतु सड जानेपर उस सांठेका स्वरूप बहुत ही बुरा दीखता है इसी तरह मनुष्यभवका भी नाम तो बहुत ही अच्छा है परंतु विचारने पर स्वरूप बहुत ही बुरा दुःखदायक जान पडता है । इसलिये इसको भोगोंमें खिपा देना तो मूर्खता है और इससे तपश्चरणद्वारा आगेके भवको सुधारलेना बुद्धिमानी है। शरीरकी क्षणिकता पुष्ट करते हैं:प्रसुप्तो मरणाशनां प्रबुद्धो जीवितोत्सवम् । प्रत्यहं जनयत्येष तिष्ठेत् काये कियच्चिरम् ॥ ८२॥ अर्थ:-जब जीव सोजाता है तब तो मराहुआसा दीखा करता है और जाग उठता है तब जीनेकी खूब चेष्टा करने लगता है। ऐसा हाल किसी एक दिनका नहीं है किंतु प्रतिदिन. ऐसा
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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