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________________ आत्मानुशासने. करके किसी निर्जन स्थानमें माल-टाल लूट-लाटकर मार डालते हैं उसी तरह यह निर्दय विधाता भी संसाी जनोंको मोहकर्मोदय-जनित रागद्वेषके द्वारा हिताहित-परीक्षामें असावधान बनाकर, महाभयंकर संसारबनके बीच आत्मीय धनको लूटकर मारडालता है । जब कि वह मारने लगता है तब किसका सामर्थ्य है कि उससे जीवको बचावै ? जिस निमित्तसे एक पर्यायसे पर्यायान्तर हो जाता है वह निमित्त ही काल है। वर्तमान आयुःकर्मके समाप्त होनेसे तथा आनुपूर्वी आदि कोंके नवीन उदय होनेसे जीवका एक पर्याय बदलकर दूसरा पर्याय उत्पन्न होता है इसलिये दैव या कर्म ही सच्चा काल है। वही इस लोकमें कालकी जगह कहा गया है । यह कार्यका कारणमें उपचार किया गया है। काल नाम किसी पर्यायके अन्त समयका है । जीवोंके पर्यायोंका अंत दैवनिमित्त द्वारा होता है इसलिये कारणमें कार्यका आरोपण युक्तिसंगत कहा जा सकता है । इसपरसे यह भी सिद्ध होता है कि जबतक जीवके साथ कर्म लगा हुआ है तबतक कालसे बचना नहीं हो सकता है । सिद्ध भगवान ही कर्मरहित हैं इसलिये वे कालसे भी बचे अनियत आजानेवाले कालसे सावधान रहनेका उपदेशःकदा कधं कुतः कस्मिन्नित्यतयः खलोऽन्तकः । मामोत्येव किमिसाध्वं यतध्वं श्रेयसे बुधाः ॥७॥ अर्थः- सुज्ञ मनुष्यों, काल तुझे छोडने बाला तो है नहीं, आवेगा तो अवश्य ही। फिर तुम यों ही क्यों बैठे हो ? अपने कल्याणार्थ यत्न क्यों नहीं करते ? वह आनेबाला अवश्य है यह निश्चय होकर भी कब आवेगा, किस तरह आवेगा, कहांसे आवेगा और कहां पर आवेगा यह निश्चय ही नहीं हैं । कोन जाने, कब आवेगा, किस तरह आवेगा, कहांसे आवेगा, कहांपर आवेगा? ऐसी हालतमें कुछ भी यत्न न करके निश्चिन्त बैठे रहना, अथवा यह विचार करना कि
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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