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________________ हिंदी -- भाव सहित (विषयासक्तकी निन्दा ) | २७ अर्थः-- जो मनुष्य विषयवासनामें अंधा हो रहा है वह नेत्रान्ध मनुयसे भी बहुत भारी अंधा है। क्योंकि, नेत्रका अंधा तो बेचारा नेत्रसे मात्र देख नहीं सकता, परंतु यह विषयान्ध तो सभी तरह के ज्ञानसे शून्य हो जाता है । आका अंधा नेत्रसे न देखनेपर भी मनसे विचार करता है, स्पर्शनादि बाकी इंद्रियों द्वारा भी जानने की शक्ति रखता है, सावधान रहता हुआ चाहें जिस बात का हिताहित के अनुकूल अनुभवन कर सकता है । परंतु विषयांधको सर्व इंद्रियां होकर भी वह विवेक - शून्य हो जाता है, कुछ भी हिताहितकी तरफ विचार नहीं कर सकता | इसलिये विषयान्ध ही सच्चा अंधा है । विषयों में तीव्र बांछा रखनेवालेकी निन्दाः - आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥ ३६ ॥ अर्थः – अरे, प्रत्येक जीवका आ शारूप खड्डा इतना विस्तीर्ण है कि जिसमें संपूर्ण संसार यदि भरा जाय तो भी वह संसार उसमें अणुमात्रके तुल्य दखेगा | अर्थात् सभी संसार उस खड्डे में डाल देनें पर भी वह खड्डा पूरा नहीं होसकता किंतु वहां पडा हुआ सारा वह संसार एक अणुमात्र जगह में ही आसकता है । परंतु तो भी ऐसी विशाल आशा रखने मात्रसें क्या किसी जीवको कभी कुछ भी मिल जाता है ? इसलिये ऐसी आशा रखना सर्वथा वृथा है । भावार्थ, यदि आशा रखने से कुछ मिले भी तो किस किसको ? आशा तो सभी संसारी जीवोंको एकसी लग रही है । और प्रत्येक आशावान् यहीं चाहता है कि सर्व संसार की संपदा मुझे ही मिल जाय । अब कहो, वह एक ही संपदा किस किसको मिलै ? इधर यदि प्रत्येक प्राणीकी आशाका प्रमाण देखा जाय तो इतना बडा है कि एक जग तो क्या, ऐसे अनंतों जगत्को संपत्ति उस आशा गर्त गर्क हो जाय, तो भी वह गर्त पूरा भर नहीं पावेगा । पर आता जाता क्या है ? केवल मनोराज्यकीसी दशा है । 1
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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