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________________ २६ आत्मानुशासन. ऐसे उत्कृष्ट मार्गको न स्वीकारने बालोंकी अवस्थाःपिता पुत्रं पुत्रः पितरमभिसंधाय बहुधा, विमोहादीहेते सुखलवमवाप्तुं नृपपदम् । अहो मुग्धो लोको मृतिजननिदंष्ट्रान्तरगतो, न पश्यत्यश्रान्तं तनुमपहरन्तं यमममुम् ॥ ३४ ॥ अर्थ:-पिता पुत्रको और पुत्र पिताको अनेक तरहसे ठगकर विषय-सुखमें मोहित हुए दोनो ही, थोडेसे सुखके स्थानभूत राज्यपदको मिलानेकी अनेक चेष्टा करते हैं । अहो, यमराजकी जन्ममरणरूप दा. ढोंके बीचमें फसा हुआ भी यह भोला प्राणी, निरंतर शरीरको चवाते हुए इस यमकी तरफ दृष्टि तक नहीं देता ! भावार्थः-किसी भी मनुष्यका यह भरोसा नहीं है कि कब उसका मरण हो जायगा । और मरणके अनंतर तो इस जन्ममें संचित की हुई विषयसामग्री काम दे ही नहीं सकती। तो भी मनुष्य अपनी चालाकी मायाचार आदि करके अनेक तरहके विषयभोग राज्यसंपदा आदिके संग्रह करनेमें कमी नहीं करता है । वे भी परस्पर वंचना करनेसे चूकते नहीं हैं, जिन पितापुत्रोंका कि परस्पर बडा भारी प्रेम माना गया है । जो धर्मपर चलता नहीं उसके ऐसे विचार होते हैं कि मैं यदि विषय-सामग्रीको बहुतसा इकट्ठा करलूंगा तो चिरकालतक सुख भोगूंगा। वह समझता है कि यह संसारकी विभूति शाश्वत है, कभी मुझसे जुदी नहीं होगी। ऐसा समझता है, तभी तो विषय संग्रह करनेमें न्याय अन्याय,सुख दुःख, बुराई भलाईका कुछ भी विचार तथा परवाह नहीं करता । जो कि धर्मको जानते हैं वे इस संसारकी संपदाको क्षणिक समझते हैं, इसलिये वे इसमें रत क्यो होने लगे ?।। विषयजन्य अन्धताको नेत्रोंकी अन्धतासे भी अधिक दिखाते हैं: अन्धादयं महानन्धो विषयान्धीकृतेक्षणः । चक्षुषाऽन्धो न जानाति विषयान्धो न केनचित् ॥३५॥
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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