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________________ २२ आत्मानुशासन. जो न्यायमार्गपर चलनेवाले होते हैं वे ऐसे जीवोंका बध कभी नहीं करते कि जो भयभीत हो, अनाथ हो, निर्दोष हो, जिसने अपने दांतोंमें तृण दवालिया हो, निर्बल रंक हो अथवा कोई स्त्री हो। जिसमें उपर्युक्त कोई एक भी स्वभाव हो वही जब अबध्य है तो जिस हरिणी में अबध्यताके उपर्युक्त सभी स्वभाव मिलते हैं उसको हिंसक लोग कैसे मारडालते हैं यह आश्चर्य की बात है। जब कि इस प्रकार बधक मनुष्योंकी निर्दयतापूर्ण निःशंक प्रवृत्ति होती है तो वे आत्मस्वभावप्रतिकूल दुःख तथा पापके कर्ता हैं कि नहीं इस बातका विचार सहज होसकता है । मात्माकेलिये अहीत तथा दुःख वही समझना चाहिये कि जो मात्माके सहज स्वभावसे विरुद्ध हो। अब चोरी आदि कुकर्मोंका त्याग कराते हैं : पैशुन्यदैन्यदम्भस्तेयानृतपातकादिपरिहारात् । लोकद्वयहितमर्जय धर्मार्थयशःसुखाऽऽयार्थम् ॥ ३० ॥ अर्थः-चुगली खाना, दीनता रखना, कपट करना, चोरी करना, झूट बोलना, मुनिहत्य आदि पातक करना इन कुकर्मीको छोडकर रे भव्यात्मन्, तू इह परलोकका हित सिद्ध कर, जिससे कि धर्मकी प्राप्ति हो संपत्तिकी प्राप्ति हो, कीर्ति तथा सुख मिले, पुण्य कर्मका आगेके लिये संचय हो । प्राणघातकी तरह चोरी आदि कामोंके करनेमें आत्माकी सहजशांती नष्ट होकर आकुलता, दुःख बढते हैं। नीच मनुष्योंके ये कार्य हैं। ऐसा करनेसे अन्यायमार्ग बढता है। जिन जीवोंके ऊपर ये कर्म किये जाते हैं उन्हें असीम दुःख होता है। इसलिये श्रेष्ठ आत्महितेच्छु मनुष्योंको इन कुकर्मोसे भी दूर रहना चाहिये । भावार्थ, अहिंसादि व्रत धारण करनेसे ये उपर्युक्त दोष दूर हो जाते हैं । अचौर्य वृतके होनेसे कपट और सत्यव्रतके होनेसे चुगली तथा दीनता एवं आहिंसा व्रतके होनेसे मुनिहत्या आदिक पापक्रिया सहज ही छूट जाती
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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