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________________ हिंदी-भाव सहित (सावधान रहनेका उपदेश)। २२९ के कामकी नहीं है। तो फिर मोक्षार्थीके कामकी कैसी निर्जस होनी चाहिये ! यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरानवः ॥ २४६ ॥ अर्थ:-जिस साधुके पूर्वसंचित पुण्य तथा पाप, दोनो ही कर्म फल न देते ही छूट जाते हैं वही सच्चा योगी है और उसीको निर्वाण पद प्राप्त होता है। ऐसे योगीको फिर नवीन कर्मोंका संचय नहीं होता। कर्मोका निष्फल नष्ट करना कैसे हो?. महातपस्तडागस्य संभृतस्य गुणाम्भसा । मर्यादापालिवन्धेल्पामप्युपेक्षिष्ट मा क्षतिम् ॥ २४७ ॥ .. अर्थः-अहिंसादि पांच महाव्रत तथा परीषह-जय, एवं कायकेश व स्वाध्याय ध्यान, इत्यादि अनेकों घोर तप हैं। इन सवोंका एकत्र धारण करना, वह हुआ मानो एक तालाव, इस तालावमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जो अनुपम गुण रहते हैं वह मानो जल है । यह तालाव इस जलसे भरा हुआ हो तभी इस तालावकी शोभा है। परंतु यह जल पूर्ण भरा तभी रहेगा जब कि इसकी पाल ठीक ठीक बँधी रहेगी। इसकी पाल क्या है ? मर्यादा या प्रतिज्ञा अथवा संयममार्गको जो एक वार यावज्जीवन स्वीकार किया है वही इसकी पाल है । वस, यह पाल ठीक ठीक सुरक्षित रहनी चाहिये । यदि पाल टूटी तो जल नहीं ठहर सकेगा। ठीक ही है, जब साधु मर्यादाका उल्लंघन करके यद्वा तद्वा प्रवर्तने लगा हो तो मोक्षके साधक ज्ञानादि गुण कैसे ठहर सकते हैं ? ज्ञानादि गुण नष्ट हुए कि वीतरागता छूटकर रागद्वेषकी मात्रा दहकने लगेगी। कर्मबंधका यही कारण है। जब कि रागद्वेष जाज्वल्यमान होचुके तो पूर्वबद्ध कर्म आत्माको रागद्वेष जगाकर अवश्य दुःख देंगे। दुःखका अनुभव होना इसीका नाम राग
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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