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________________ २२८ . मात्मानुशासन. मोचन होता है। यह संसारके जीवोंकी दशा है। जहांपर जितना कर्मबंधन कम है वहांपर उतनी ही निर्जरा समझनी चाहिये । यह अभिप्राय अनेक जीवोंकी अपेक्षा कहा। अब एक ही जीवकी जैसी जैसी दशा बदलती है वैसा वैसा कर्मबंधनमें अंतर पडता है यह भी दिखाते हैं। वह कैसे ? जब मिथ्या गुणस्थान रहता है तब जीवको कर्मबंधन सबसे अधिक होता है। अथवा यों कहिये कि, वहां केवल बंध ही बंध है। जीव कर्मबंधनकी जिस निर्जरासे मुक्त होसकता है वह अविपाक-निर्जरा वहां लेशमात्र भी नहीं होती। आगे चलकर जब जीवकी अर्ध शुद्ध मिश्रगुणस्थानकी दशा प्राप्त होती है तब कर्मबंधन पहिलेकी अपेक्षा आधासा कम होने लगता है और पूर्व कर्मोंकी निर्जरा होना भी सुरू हो जाता है । यहांसे भी ऊपर चलकर जब सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है तब काँका बंधन बहुत ही थोडा होने लगता है और पूर्वकर्मोकी निर्जरा बहुत अधिक होने लगती है। जब जीव यहांसे ऊपर चलकर कषायोंका क्षय कर डालता है तब कर्मोंका बंध होना रुक जाता है और पूर्वकर्मोंकी केवल निर्जरा ही निर्जरा होने लगती है । यद्यपि सद्वेद्य-कर्मका बंध वहां भी होता है परंतु वह उसी समय छूटता भी जाता है इसलिये असली बंध होनेका वहांसे लेकर अभाव ही समझना चाहिये । वस, थोडा आगे चलकर वह सर्वथा मुक्त हो जाता है । यह कर्मों के बंधन व मोचनका प्रकार है। फल देकर जो कर्मों का क्षय होना है उसकी अपेक्षासे यदि देखा जाय तो निर्जरा भी बंधके वरावर ही होती है और वह सभीको होती है परंतु उसके होते हुए भी जीवका वास्तविक छुटकारा नहीं होसकता है। क्योंकि, उस अवस्थामें जैसी निर्जरा होती है वैसा ही बंध भी नवीन नवीन होता ही जाता है। इसलिये वह निर्जरा मोक्षा १ यहां श्लोकके 'अधिक' शब्दका अर्थ अत्यंत या सर्वथा करना चाहिये । .:
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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