SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी -भाव सहित ( मोहजन्य दोष ) । २१७ उन्हें पास में रखनी पडती हैं। मोह ऐसी चीज है कि उन तुच्छ वस्तुओमें भी उत्पन्न हो जाता है । और साधु-जन इसी धोखेमें रहते हैं कि हमने सारा संसार छोडदिया । हमको अब अज्ञान तथा मोह ब मोहादिके कारण नहीं रहे । हमारी अब कुछ हानि नहीं होसकती है । साधुओंको ऐसी भूल होना संभव है । इसीलिये उस सूक्ष्म विषयाधीन मोहसे सावधान रहनेका इस श्लोक में उपदेश है । अर्थ:- अतिरमणीय वनितादि वस्तुओंसे जब कि तू मोह हटा चुका है तो संयमकी रक्षाकेलिये केवल जिन थोडीसी चीजोंके रखनेकी तुझे आज्ञा मिली है उनमें तू क्यों वृथा ही मोहित होता है ? इस मोहकी महिमाको तू समझता है । स्वल्प - वस्तुसंबंधी जो स्वल्प मोह संसारी जनोंकी विशेष हानि नहीं कर सकता है वही तेरेलिये भयंकर हानि पहुंचावेगा । जैसे औषध अजीर्णादि रोगोंका नाश करती है परंतु मात्रा से अधिक उसका सेवन करना अपाय करता है । इसीलिये जिसे अजीर्ण रोग हुआ हो वह रोग-शमनार्थ भोजनको त्यागकर औषध सेवन करता है । परंतु वही औषध यदि आसक्ति रखकर अधिक सेवन कीजाय तो उलटी अजीर्ण बढानेवाली होगी । इसीलिये जो बुद्धिमान है वह अजीर्णशमनार्थ भोजनका त्याग करता है और औषध पीता है। परंतु वह केवल औषधको अधिक पीकर कभी अपना अजीर्ण बढावेगा नहीं । जो औषध सेवन करता हुआ भी आपत्तिवश अजीको बढाता है वह मूर्ख है। इसी प्रकार जो आत्मकल्याणार्थ सारे संसारको छोडकर आवश्यकतानुसार रक्खी हुई थोडीसी वस्तुओंमें ही मोहित हो बैठता है वह नितान्त मूर्ख है । मोहित ही होना था तो संसारको क्यों त्यग्गा ? भावार्थ, जबतक कमका नाश नहीं हुआ तबतक कार्यसिद्धि में अनेकों तरहसे डर ही डर है। इसलिये साधुको सदा निर्मोही व सावधान रहना चाहिये । T गृहस्थी मोक्षमार्गस्था निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुन: नः ॥ अस्रमन्तभद्रः ॥ ૧૯
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy