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________________ २१६ आत्मानुशासन.. रक्षा करने के लायक कोई चीज ही नहीं है। और तो क्या. उन्होंने अपना आत्मा भी पराधीन कर रक्खा है। गुण-दोषोंका विचार तक उनके हृदयमें नहीं रहा है। विषयोंके वश होकर उन्होंने अपनी . ज्ञानादि-निधि सर्वथा खोदी है। अब उनके पास है ही क्या, जिसकी. कि उन्हें चिंता हो ? डर है तो उसको कि जिसके पास कुछ मौजूद हो। जिसके पास कुछ थोडीसी भी जड संपत्ति होती है वह भी उसे संभालकर रखता है। तेरे पास तो अपूर्व संपत्ति है। ज्ञान दर्शन व चारित्र ये तीनो महारत्न हैं। इनका प्रकाश जगभरमें पडेगा। ऐसे अपूर्व अमूल्य रत्न जिसके पास हों उसे तो सदा ही सावधानीसे रहना चाहिये । जहां संपत्ति है वहां उसके हरने या लूटनेवाले भी रहते ही हैं । तेरे रत्नोंको हरनेवाले इंद्रिय-चोर तेरे ही आस-पास फिर रहे हैं। तू थोडा भी अचेत हुआ कि इन्द्रिय-चोर तेरे ज्ञानादि-रत्नोंको हर लेंगे । इसलिये तू अच्छी तरह जागता रह । भावार्थ, तू इंद्रियोंके विषयोंमें फिरसे मोहित मत हो। नहीं तो जैसे वाकी संसारी जीव अपना सर्वस्व गमाकर बैठे हैं वैसे तू भी अपनी निधिको गमा बैठेगा। जो अपना गमाचुके हैं वे तेरा भी गमाकर संतुष्ट होना चाहते हैं। इसलिये तू उन विषयाधीन जनोंकी संगति भी मत रख । जो सर्व विषयोंको छोडकर साधु बन चुके हैं उनको मोह हो तो किस वस्तुमें हो ? उनके पास कुछ रहा ही नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि उनके पास भी मोहके कारण हैं । क्या ? देखोः रम्येषु वस्तुवनितादिषु वीतमोहो, मुह्येद्वथा किमिति संयमसाधनेषु । धीमान् किमामयभयात् परिहत्य भुक्तिं, पीत्वौषधं व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् ॥ २२८ ॥ भावार्थः-साधु-जन संसारवर्धक कुल विषयों को तो छोड देते हैं परंतु संयमकी रक्षाकेलिये कमंडलु आदि कुछ थोडीसी चीजें तो भी
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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