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________________ १७० आत्मानुशासन. जनोंकी श्रेणीमें आकर पडेगा तब जो आत्मा तपसे अति सुखी होनेवाला था वही संसार के आघातोंसे कितना दुःखी होगा, इसकी तुझे कुछ संभावना भी है कि नहीं ? जो ऊपरसे नीचे गिरता है उसे चोट लगती ही है जिससे कि वह अति दुःखी होता है। यह तपका पद तो बहुत ही ऊंचा है। जिसको स्वर्गवासी देवेन्द्र भी नमते हैं उसकी ऊंचाईका क्या ठिकाना है ? यह तप स्वर्गकी अवस्था से भी अधिक ऊंचा व श्रेष्ठ है । इसीलिये तपमें स्थित हुए मनुष्यको इंद्रादिक भी पूजते हैं । संसारमें सबसे ऊंचा स्वर्ग । पर जब कि तप स्वर्ग के पद से भी ऊंचा है तो उससे अतिहीन अवस्थारूप संसार में नीचे गिरना अति दुःखदायक क्यों नहीं होगा ? और तू कुछ अज्ञानी नहीं है। फिर भी तू उसको छोडकर विषयोंकी तरफ नीचा झुकनेमें डरता नहीं है यह आश्चर्य है ! विशुध्यति दुराचारः सर्वोपि तपसा ध्रुवम् । करोति मलिनं तच किल सर्वाधरोऽपरः || १६७॥ अर्थ : - तपसे बडे बडे पातक भी संपूर्ण नष्ट हो जाते हैं । ऐसी महिमायुक्त तपको कितना सँभालकर रखना चाहिये ? पर विषयों में अति लुब्ध हुए कोई कोई नीच प्राणी उस तपको भी विषयवासना के द्वारा मन करते हैं । I भावार्थ:-- जीवको जबतक सुखके सत्य मार्गका ज्ञान नहीं हुआ हो तबतक वह नीच कर्म करने से ही सुखकी प्राप्ति होना समझता है । और इसीलिये वह नीच कर्मोंसे उपरत नहीं होता । वह नीच हैं । पर जो आत्मकल्याण करनेकी प्रतिज्ञा कर इस तपमें आकर लगता है वह भी यदि तपको करते करते संसारी जनोंकीसी नीच वासनामें फस जाय अथवा तप व मोक्षमार्गको ही उलटा समझकर वैसा चलने लगजाय तो वह अति नीच है । इसलिये तपस्वीको चाहिये कि वह तपको वीतराग अवस्था में ही रहने दे । तपको विषयवासनामें मिला देनेसे संसारीजनोंमें तथा तपस्वी में अंतर ही क्या रहेगा ?
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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