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________________ हिंदी-भाव सहित (तपमें स्थिर करनेका उपदेश)। १६९ तमें नष्ट होजाने वाला होता है। इसीलिये उसे छोडकर जो अनुपम स्वाधीन, नित्य सुख प्राप्त करनेका प्रयत्न करै तो यह बुद्धिमानी ही है। हाँ, यह बड़ा आश्चर्य है कि विषके तुल्य विषयोंको दुःखदायक समझकर भी व एक वार इसीलिये उन्हें छोडकर भी, अर्थात् सर्वोत्कृष्ट तपमें लगकर भी फिरसे भोगोंकी आशा उत्पन्न कर तपको छोडदिया जाय । जो ऐसा करता है उसकी भूलका क्या ठिकाना है ? । भावार्थः-अधिक सुखकेलिये थोडासा सुख छोड देना, यह बुद्धिमानी है । और थोडे व तुच्छ सुखकेलिये अधिक सुख तथा अधिक सुखके कार्यको छोड बैठना मूर्खता है । संसारमें बडेसे बडा सुख चक्रवर्तीको मिल सकता है । परंतु तपके सामने वह भी कोई चीज नहीं है। इसीलिये तपको पाकर उससे उदास होना और विषयोंकी तरफ फिरसे मोहित होना वडी ही भारी भूल है । समझ-बूझकर यदि कोई ज्ञानी मनुष्य ऐसा करै तो और भी बडा आश्चर्य है । इसीलिये अरे भाई, जब कि तू तप करनेमें प्रवृत्त होचुका है तो अब विषयोंकी तरफ झुकै मत । याचनाकी इच्छा करनेसे यह मालूम पडता है कि तुझै विषयोंके विना रहा नहीं जाता ।पर याचना की कि तू ऊपरसे नीचे गिरेगा । इसका तुझै डर नहीं है ? देखः शय्यातलादपि तुफोपि भयं प्रपातात, तुङ्गात्ततः खलु विलोक्य किलात्मपीडाम् । चित्रं त्रिलोकाश खरादपि दूरतुङ्गाद् , धीमान् स्वयं न तपसः पतनादिभेति ॥१६६॥ ___ अर्थः-जब कि छोटासा बच्चा भी खाटके ऊपर बैठा हुआ नीचेकी तरफ देखता है तो ऊंची उस खाट परसे नीचे पडजानेको वह डरता है; क्योंकि, नीचे गिरजानेसे मुझै चोट लगजायगी, यह बात वह समझता है। पर आश्चर्य कि,तू बुद्धिमान् होकर भी तपके उच्च पदसे नीचे गिरनेको डरता नहीं है । इस तपको छोडकर जब तू हीन दीन संसारी २२
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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