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________________ १६४ आत्मानुशासन. दशाका कारण समझता है तो सहज छूटजानेवाले वस्त्रादि परिग्रह की इच्छा क्यों करेगा ? इससे तो और भी हीन दशा होना संभव है । यदि कोई साधु भोजनमें लंपट होता दीखै तो वह निन्दाकी बात है। देखोः दातारो गृहचारिणः किल धनं देयं तदत्राशनं, गृह्णन्तः स्वशरीरतोपि विरताः सर्वोपकारेच्छया । लज्जैषैव मनस्विनां ननु पुनः कृत्वा कथं तत्फलं, रागद्वेषवशीभवन्ति तदिदं चक्रेश्वरत्वं कलेः ॥१५९॥ अर्थ:-मनस्वी आत्माधीन रहनेवाले साधु शरीरसे पूर्ण विरक्त रहते हैं, सर्व जगके कल्याणकी कामना रखते हैं। ऐसे रहकर कल्याण करनेकी आशासे गृहस्थोंका भोजन स्वीकार करते हैं । वह भी भोजनमात्र, और कुछ नहीं। देनेवाले भी गृहस्थ होते हैं जो कि अपने निर्वाहकेलिये घरमें भोजन तयार करते ही हैं। उनको साधुओंकेलिये जुदा कष्ट उठाना नहीं पडता । इतनी बातें होते हुए भी भोजन ग्रहण करना उत्तम साधुओंको एक लजाकी बात जान पड़ती है। असली साधुओंकी इतनी निरपेक्ष अवस्था होती है। पर हाँ, इस कलियुगके अपरिहार्य सर्वव्यापी माहात्म्यने कहीं भी अपना असर डालनेसे छोडा नहीं है । इसीलिये आज बहुतसे साधुओंमें भी विषयोंसे ममत्व–पूर्ण राग छूटा हुआ नहीं दीखता । देखिये, जहां कि भोजन लेना भी लज्जा समझी जाती थी वहां आज यह विचार होगया है कि साधुपद धारण करलिया कि गृहस्थोंसे भोजन लेना ही चाहिये । गृहस्थोंका भी इधर यह हाल है कि मुनियोंको भोजन देनेमें वे अनेक ऊहापोह करते हैं। मुनियोंको अपने अधीन और उनसे भी अपनेको उत्कृष्ट समझते हैं । इत्यादि रागद्वेषका प्रवाह दोनो ही तरफ बढने लगा है। यह सब कलि. कालकी अखंड महिमाका फल हैं । इधर गुरु लोभी, उधर चेला लालची, यह कहावत पसरती जा रही है । अथवा, सारे धर्मकी सृष्टिका प्रादुर्भाव करनेवाले भगवान् तीर्थकर सरीखोंके साथ घट-पटादि
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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