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________________ हिंदी-भाव सहित (वैराग्यवृद्धिका क्रम)। १६३ बुला लेजानेवालेके साथ भोजन करनेकेलिये चले जाना; वे बातें क्रमसे छूटती जाती हैं । यहांपर जिसकी प्रवृत्ति दुनियामें सर्वथा नहीं है वह बात सध नहीं पाती । जैसे कि, दुनियामें कोई भी नग्न होकर रहता नहीं और दुनियाकलिये यह असह्य भी है । सर्व प्रकारके वाकी रागांश छूट सकते हैं पर नग्नताकी लज्जा दुनिया में छूट नहीं पाती । वस, इसलिये इस दर्जेमें रहनेवाला भी चाहें वस्त्रोंको परिग्रह व हेय समझता है पर छोडकर नग्न होनेका साहस तो भी नहीं कर सकता। इसीलिये पांचवे गुणस्थानवाला जीव दुनियाके भीतर रहनेवाला गृहस्थ समझा जाता है। दुनियाकी तरफसे वेपरवाही जब हो जाती है तब फेंकने लायक उन सभी चीजोंको मनुष्य फेंक देता है कि जिनका संबंध केवल शरीररक्षाकेलिये व आरामकेलिये है। तो भी मलमूत्रादिसे स्पर्श न करके शुद्ध रहना यह व्यवहार-धर्म है। इसलिये कभी कभी मल मूत्रादिकी हाजत होनेपर धोकर शरीरको शुद्ध बनालेनेकी इच्छासे शुद्ध जलका एक साधासा लकडीका वर्तन रखनेकी मंद इच्छा उस अवस्थामें भी जीवको रहती है । इसको रखना किसी तीव्र राग-द्वेषका कार्य नहीं है। वस्त्रका रखना इससे बहुत बडी तीव्र कामवेदनाकी पराधीनताको सूचित करता है, जो कि संसार स्थिर रखनेकी जड है। इसीलिये निर्विकार चेष्टा होजानेपर वस्त्र रखनेकी आवश्यकता नहीं रहती। वह मनुष्य एकाकी जंगलों में रहने लगता है। इसको छट्ठा गुणस्थान कहते हैं । ऐसी अवस्थामें विरक्तता तो इतनी बढजाती है कि शरीरको भी वे अलग करदें । परंतु शरीर फेंका नहीं जाता इसलिये उसको साथ लेकर रहना पडता है । तपश्चरणके द्वारा आत्माको स्वतंत्र करलेनेकी शक्ति प्रगट करनेतक इस शरीरको संभालकर रखना पडता है । इसीलिये तबतक और सारे परिग्रह छूट जानेपर भी भोजन लेना ही पडता है । पर जब कि वह साधु उस भोजनका लेना ही अपनी हीन
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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