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________________ प्रस्तावना. करके गूंथा है । यह इसका भाव है । इसकी संस्कृत टीका इस प्रकार है कि " इति एवमुक्तप्रकारेण कतिपयवाचां स्वल्पवचनानां गोचरीकृत्य विषयं कृत्त्वा" । इसका भी यही भाव है। इसका अर्थ टोडरमलजी यों लिखते हैं कि-' केईक वचनकी रचनाकरि उदार हैं चित्त जिनिका जैसे महामुनि तिनके चित्तकों रमणीक इह आत्मानुशासन ग्रंथ रच्या'। परंतु यह अन्वय-संबंध किसी प्रकार भी नहीं बैठ सकता है। क्योंकि, 'कतिपयवाचां गोचरीकृत्य ' इस वाक्यखण्डका वाच्यार्थ, ग्रंथका विशेषणरूप ही करना ठीक है । सिद्धांतसे विरुद्ध भी कहीं कहीं पर लिख दिया है । देखो २४१ वां श्लोकः- इसमें जो भूल है वह हमने टिप्पणीमें श्लोकके नीचे दिखादी है । यहां भी उसका खुलासा किये देते हैं। . २४१ वें श्लोकका चौथा चरण 'सम्यक्त्ववतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते' ऐसा है। इसमें आत्माके छूटनेका क्रम बताया है। जब छूटते समय आत्मा अंतमें योगोंका भी नाश करदेता है तब संसारसे विलकुल छूट जाता है । इसीलिये आत्माके छूटनेमें सबसे प्रथम उपाय सम्यक्त्व प्राप्त करना है और अंतका उपाय योगाभाव है। प्रतादि जो कारण हैं वे बीचमें उपयोगी पडते हैं। अत एव उपर्युक्त वाक्यमें ' अयोगैः ' ऐसा पदच्छेद करना ही ठीक पडता है। संस्कृत टीकाकारने भी इसलिये ऐसा ही पदच्छेद किया है । ' अकलुषताक्रोधादिरहितता । अयोगैः कषायाद्यव्यापारैः ।' परंतु पं. टोडरमलजीका लिखना देखिये: सो आत्मा मिथ्यादरसनादि करि मलिन है अर काललब्धि पाइ काहू एक मनुष्य भवविधै सम्यक्त वृत विवेक अर अकलुषता इनिके योगकरि अनुक्रमते मुक्त होइ है।' भावार्थ, 'इनिके योगकारे' ऐसा अर्थ — ऽयोगैः' इस पदका किया है। यह अर्थ किसी प्रकार भी ठीक नहीं होसकता है । क्योंकि,
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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