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________________ ७८ आत्मानुशासन. तो सुतरां तेरा आगामी समय सुखमयी बन जायगा । विषयोंके सेवनेमें तेने आजतकका सारा समय विताया पर, रत्तीभर कभी सारांश न मिला । तो फिर उन विषयोंसे विरक्त न होने का क्या कारण है ? अरे, इतने दिनतक तो विषयों में मम रहकर उनका दुःखमय परिपाक तेने पूरा समझलिया पर, गुण नए हैं इसलिये उनसे प्रीति करके भी तो देखा क्या फल मिलता है ? विषयदुःखोंका दृष्टान्तःइंसर्न भुक्तमतिकर्कशमम्भसापि, नो संगतं दिनविकाशि सरोजमित्थम् । नालोकितं मधुकरेण मृत पृथैव, मायः कुतो व्यसनिनां स्वहिते विवेकः ॥ ९३॥ अर्थ:--यह सरोज ( कमल ) जलसे पैदा होकर भी उसमें लिप्त नहीं हुआ-सदा उस जलसे जुदा ही रहा । इससे यह जान पडता है कि यह कमल अति कठोरहृदय है। इसीलिये शायद हंसोंने इसको खाया नहीं । केवल दिनमें ही खिला रहकर रातको मुद जाता है-सदा विकसित भी नहीं रहपाता। अरे भोरा, इस कमलके ऐसे स्वभावकी तरफ तेने कुछ ध्यान नहीं दिया । स्वभावका विचार न करके उसमें फसा इसलिये उसीमें वृथा प्राणान्त हुआ। विषयोंका भी ठीक यही स्वभाव है : पुण्यकर्म का उदय जबतक रहता है तभीतक विषयभोग टिकते हैं, नहीं तो रातको कमलकी तरह पुण्यकर्मके खतम होते ही वे विलीन हो जाते हैं । आत्मामें उपजकर भी आत्मीय शुद्ध भावोंसे सदा ही ये विषय जुदे रहते हैं । अर्थात जहां आत्मीय शुद्ध भावोंका स्वरूप प्रकाशमान रहता है वहां इन विषयोंकी गति नहीं होपाती । इसीलिये शायद इन्हें तीर्थकरादि श्रेष्ठ पुरुघोंने कठोरहृदय दुःखदायक समझकर भोगनेसे छोड दिया । ऐसे निःस्नेह निःसार क्षणभंगुर इन विषयोंमें जो जीव फसते हैं वे वृथा ही
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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