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________________ हिंदी-भाव सहित (विषयोंसे हटाना )। भावार्थः-इस शरीरमेंसे प्राणोंके निकल जानेकी शंका तो सदा ही बनी हुई है । बालकसे बूढेतक सभी मरते दीखते हैं । इस लिये आगेके भवकी संभाल करना तो सदा ही चाहिये । पर, बुढापेसे आगे तो अधिक कदापि रह ही नहीं सकता । इसलिये बुढापा आ पहुचने पर परलोककी चिंता सभीको करनी ही चाहिये । यदि कोई प्राणी बुढापा आजानेपर भी निश्चिन्त बैठा रहै तो कहना चाहिये कि वह अमिसे जलते हुए मकानके भीतर जानता बूझता निश्चिन्त बैठा हुआ है । उसकी मूर्खताका क्या ठिकाना है ? जिस बुढापेमें आंखोंकी मोत मंद हो जाती है, कान बहरे हो जाते हैं, शरीर, शक्ति घट जानेसे शिथिल होकर कपने लगता है उस बुढापेका ठहरना क्या चिरकालतक हो सकेगा? नहीं। तो फिर यहांसे छूटकर जहां पहुचना है उसकी चिंता अब भी क्यों नहीं करते ? और भी देखः अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत्लीपिरिति हि जनवादः। त्वं किमिति मृषा कुरुषे दोषासको गुणेष्वरतः॥१२॥ अर्थः-जीवोंमें यह स्वभाव दीख पडता है कि चिरपरिचित वस्तुओंसे स्नेह घट जाया करता है और नए पदार्थ में खेह पैदा होता है । पर तू इस कहावतको भी झूठा कर रहा है कि, चिरकालके पारीचित होनेपर भी रागद्वेषादि दोषोंसे तेरी प्रीति घटी नहीं और नए प्राप्त हुए या होने बाले सम्यत्कादि गुणोंसे प्रीति जुडती नहीं । भावार्थ:-अरे जीव, यदि तू इस कहावतके अनुसार भी चल सके तो सम्यत्कादि नूतन गुणोंकी प्राप्ति तथा वृद्धि होनेसे, एवं चिरकालसे गाढ परिचित हुए राग-द्वेषादि दोषोंका अभाव होनेसे तेरे परलोकका सुधार हो जाय । क्योंकि, रागद्वेषादि द्वारा बंध होनेवाला पापकर्म जब कि रागद्वेषादिके अभाव होनेसे रुकेगा और तीव्र पुण्य कर्मका बंध तथा पूर्वसंचित पापकर्मों की निर्जरा करदेनेवाले सम्यकादि गगोंकी बढवारीसे पापकर्मीका नाश तथा पुण्यकर्मका काम होगा
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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