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________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार । १९७ ऐसे मेरे परम उछाह प्रवर्ते है । केवल लक्ष्मीका देखवांकी अत्यंत अभलाषा भई है । सो कब यह मेरा मनोरथ सिद्ध होय मैं या 'घररूप वंदी गृहने छोड़ निवृत्य होय । अनन्त चतुष्टय संयुक्त तीन लोकका अग्र भाग विषे सिद्ध भगवान मेरा कुटुम्ब तहां जाय तिष्टोंगा अरु लोकालोकके तीन काल संबंधी द्रव्य गुण पर्याय सहित समस्त षद्रव्य नव पदार्थ ताका एक समय में अवलोकन करूंगा ऐसी मेरी दसा कब होयगीनो ऐसा में परम जोतिमय आप द्रव्य ताकू देख औरकौनकू देखू और तो समस्त गेय पदार्थ जड़ हैं। तिन सू कैसा स्नेह अरु उनसू कहा प्रयोजन जैसे की संगति करे तैसा फल लागे सो जड़सू प्यार किया सो मुझने भी जड़ सारखा करना कहां तो मेरा केवल ज्ञान स्वभाव अरु कहां एक अक्षरके अनन्तवें भाग ज्ञान अरु कहां पूर्न सास्वता सुख अरु कहां नर्क पर्यायमें सागरा पर्यंत आकुलतामें दुख अरु कहां वीर्य अंतरायके नास भये केवल दसा भये अनन्त वीर्य पराक्रम अनंतानंत लोकके उपाय लेवे सारखा सामर्थ कहां एकेंद्री पर्यायका वीर्य सो रुई के तारके अग्रभाग ताके असंख्यातवें भाग सूक्ष्म एकेन्द्रीका सरीर सो इन्द्री गोचर नाहीं। वजादिक पदार्थमें अटके नाहीं। अग्नितें जले नाहीं। पानीते गले नाहीं। इन्द्र महाराजके वज दंड कर हन्या जाय नहीं ऐसा सूक्ष्म शरीर तावं लेवा समर्थ एकेन्द्री नाहीं । यां कारन कर याकू थावर संज्ञा है। अरु वेइन्द्री आद पंचेन्द्री पर्यंत ज्यों ज्यों वीर्य अंतरायका क्षयोपसम भया त्यों त्यों वीर्य प्रगट भया सो वेइन्द्री अपना सरीरकू ले चाले अरु किंचित मात्र अपना मुखमें वा वाका वस्तु भी ले चाले ऐसे ही सर्वार्थ
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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