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________________ १९६ ज्ञानानन्द श्रावकाचार | गया ज्यों ज्यों परद्रव्यका निर्वृत्य होय त्यों त्यों ज्ञानानंद स्वरूपकी वृद्धि होय सो प्रतक्ष अनुमानमें आवे है । तातें विवहार मात्र मेरे वैरी चार घातिया कर्म हैं । निश्चे विचारतें मेरा अज्ञानभाव वैरी है । मेरा मैं ही वैरी मेरा में ही मित्र सो मैं अज्ञान भावां कर कार्य किया सो ताके वल तेंसा ही आकुलतामय फल निपज्या ताकर मैं दुखी भया सो वे दुखकी बात कौनसे मित्रसो कहिये सर्व जगतके जीव मोह कर्मरूप परनमें हैं । भ्रम कर ही अत्यंत प्रचुर अनादि कालका ही महा दुख पावें मैं भी वाही के साथ अनादकालका दुख पावूं था अब कोई महा शुभ भागके उसे श्री अरहंत देव के अनुग्रह कर श्री जिनवानी के प्रतापसे मुनि महाराजने आदि दे परम धर्मात्मा दयालु पुरुषनका मिलाफ भया अरु वाके वचनरूपी अमृत पान कराया ताके अतय कर मोह जुर मिट कषायनकी आताप मिटी अरु सांत परनामतें कामरूपी पिशाच भाग गया अरु इन्द्रीं भी ज्ञानरूपी जालतें पकरी गई अरु पांच अवृतनका नाश भया अरु संयम भावकर आत्मा शीतल भया सत्यकूदृष्टि ज्ञान लोचनतें मोक्षका सुख लख्या अब हम धीरज घर शीघ्र ही मोक्षमार्गकूं चाहूं हूं मोहकी सेन्या लुट जाय है । घातिया कर्मनका जोर घटता जाय है मेरी ज्ञान जोति उदै होय है । मेरा अमूर्तीक निर्मल असंख्यात प्रदेश ता ऊपरसूं कर्म रज उड़ती जाय है । ताकर मेरा स्वभाव हंस अंस उज्जल होता जाय है । सो अत्र में जती पद लेसी ताकर मोहका 1 नाश होसी तपरूपी वज्रकर मोहरूपी पर्वतका खंड खंड नासकरसी घातिया कर्मनकूं परवार सहित ध्यानरूप अग्निमें भस्म करूंगा
SR No.022321
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMoolchand Manager
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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