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________________ व्याख्यान ५ : स्थानों द्वारा निरन्तर मन में चिन्तवन करना परमार्थ संस्तव नामक समकित की पहली श्रद्धा कहलाती हैं । इसका दूसरा नाम परमरहस्य परिचयपन भी कहा गया है । अंगारमर्दक आचार्य आदि को भी परमार्थ संस्तव आदि का तो संभव है ऐसी यदि कोई शंका करे तो वह शंका करने योग्य नहीं है; क्यों कि इस श्रद्धा में केवल तात्त्विक श्रद्धावाले को ही अधिकारी गिना गया है और अंगारमर्दक जैसे मिथ्यात्वी में तात्त्विक श्रद्धा का बिलकुल संभव नहीं था । इस पहली श्रद्धा पर अभयकुमार का दृष्टान्त उपलभ्य है - अभयकुमार का दृष्टान्त औत्पत्त्यादिधियां सद्म, अभयो मंत्रिणां वरः । तत्त्व परिचयादाप, सर्वार्थसिद्धिकं सुखम् ॥ १॥ भावार्थः – औत्पातकी आदि बुद्धि के स्थापनरूप मंत्रिवर अभयकुमारने तत्र के परिचय से सर्वार्थसिद्धि का सुख प्राप्त किया । राजगृह नगर में प्रसेनजित राजा राज्य करता था । उसके श्रेणिक आदि सो पुत्र थे । एक समय राजाने यह जानने के लिये कि राज्य के योग्य कौनसा कुमार हैं ? उन सबको एक एक खीर का थाल देकर एक साथ भोजन करने को बिठाये। फिर जब उन्होंने भोजन करना आरम्भ किया
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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