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________________ व्याख्यान ५९ : भावार्थ:-मा बाप से ताड़न किया हुआ पुत्र, गुरु से शिक्षा पाया हुआ शिष्य और घण से पीटा हुआ स्वर्ण ये तीनों लोक में शोभा पाते हैं । सोमिल अपने पुत्र को अत्यन्त परिश्रम कर पढाता था, परन्तु उसको कुछ भी नहीं आया और दासीपुत्र कोकाश उसका दास होने से उसके पास बैठा रहता था वह मौनपूर्वक ही सर्व कलाओं को सुनने मात्र से सीख गया तथा गुरु (सोमिल) से भी अधिक कुशल हो गया । कुछ समय पश्चात् सोमिल रथकार के मरने पर उसके स्थान पर उसके पुत्र देविल के मूर्ख होने से कोकाश को ही राजाने स्थापन किया । कहा भी है कि-- दासेरोऽपि गृहस्वाम्यमुच्चैः काममवाप्तवान् । गृहस्वाम्यपि दासेरमहो प्राच्यशुभाशुभे ॥१॥ भावार्थ:--कोकाश ने दासीपुत्र होने पर भी महान गृहस्वामीपन को प्राप्त किया और देविलने गृहस्वामी होते हुए भी दास का आधीनपन प्राप्त किया । अहो ! पूर्व के शुभाशुभ कर्म कैसे विचित्र हैं ? बाद में कोकाश ने गुरु के मुंह से धर्मदेशना सुन कर जैनधर्म अंगीकार किया और उसका दृढ़ चित्त से आराधन करने लगा।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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