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________________ : ४३२ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : तं दुक्करं तं च महाणुभावं, जं सो मुणी पमयवणम्मी वुच्छो ॥ १ ॥ भावार्थ:-- आम की लंब तोड़ना तथा सरसव के ढ़ेर पर नाच करना दुष्कर नहीं है परन्तु महानुभाव श्रीस्थूलभद्र मुनि प्रमाद तथा प्रमाद के बन में जो प्रमादी नहीं हुए यह ही एक दुष्कर है । गिरौ गुहायां विजने वनान्तरे, वासं श्रयन्तो वशिनः सहस्रशः । हर्म्येऽतिरम्ये युवतीजनान्तिके, वशी स एकः शकटालनंदनः ॥ २ ॥ भावार्थ:-- पर्वत की गुफा तथा निर्जन वन में रहनेवाले हजारों मनुष्य जितेन्द्रिय हो सकते हैं, परन्तु अति मनोहर प्रासाद में सुन्दर युवतिजन के साथ निवास कर मात्र एक शकटालमंत्री के पुत्र श्रीस्थूलिभद्र ही जितेन्द्रिय रहे हैं । इस प्रकार श्री स्थूलिभद्र मुनि की प्रशंसा कर उसने रथकार को प्रतिबोध किया इस से उस रथकारने विषय से पराङ्मुख हो दीक्षा ग्रहण की और अनुक्रम से स्वर्ग सुख प्राप्त किया । कोशा भी चिरकाल जैनधर्म की प्रभावना कर स्वर्ग सिधारी ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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