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________________ व्याख्यान ४८: : ४३१ : के लिये नन्दराजाने कामदेव के सदृश रूपवान एक कामातुर रथकार (सुथार) को उसके पास भेजा । उस रथकारने कोशा के मनोरंजन के लिये एक स्थान पर खड़ा रह कर धनुर्विद्या की निपुणता से एक एक के पश्चात् एक बाण छोड़ कर लम्बी लकड़ी के सदृश बने हुए बाण के अग्र भाग से आम के सिरे की लुंब तोड़ कर उसे अपने हाथ में ले कोशा को भेट की। उसी प्रकार अपनी वाणी की सर्व प्रकार की चतुराई तथा सर्व प्रकार का बल बतलाया यह सब देख कर विषय से विरक्त हुए कोशाने कहा कि वरं ज्वलदयास्तंभपरिरंभो विधीयते । न पुनर्नरकद्वाररामाजघनसेवनम् ॥१॥ भावार्थ:--तपाये हुए लोहे के स्तंभ का आलिंगन करना श्रेष्ठ है किन्तु नरकद्वार सदृश स्त्री के जघन का सेवन करना उचित नहीं। इस प्रकार वैराग्य के वचन बोलकर फिर उसके गर्व का नाश करने के लिये सरसव का ढेर कर उस पर एक सुई रख उस सुई के अग्रभाग पर पुष्प रख कर नृत्य करती हुई वेश्याने कहा कि न दुक्करं अंबयलंबतोड़नं, न दुक्करं सरिसवनच्चियाणं ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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