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________________ व्याख्यान ४७ : .४२३ : की क्षति और विपक्षी के मत का प्रतिपादन होता था अतः उसने उत्तर दिया कि-बिना उद्योग के बनते हैं। प्रभुने पूछा कि-हे सद्दालपुत्र ! कदाच कोई पुरुष तेरे इन बर्तनों को चुरा कर ले जाय अथवा तोड़ डाले अथवा तेरी स्त्री के साथ भोगविलास करे तो तू उसको क्या दंड देगा ? उसने उत्तर दिया कि-हे भगवान् ! मैं उसकी अत्यन्त तर्जना करूं-उसके प्राण अकाल में ही नाश करातूं। इस पर स्वामीने कहा कि-इस प्रकार उद्यम की परतंत्रता से ही सर्व कार्य करने पर भी तेरा सर्व कार्य उद्यम बिना होना कहना मिथ्या है । एकान्तरूप से माना हुआ सर्व असत्य और स्याद्वादद्वारा माना हुआ ही सत्य होता है। आदि भगवान् की युक्ति से प्रबोध प्राप्त कर उस श्रेष्ठीने अपनी स्त्री सहित जिनेश्वर के पास पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्ररूप श्राद्धधर्म स्वीकार किया। तत्पश्चात् श्रीजिनेश्वरने अन्यत्र विहार किया । ___ सद्दालपुत्र के भगवंत के धर्म को अंगीकार कर लेने की बात सुन कर गोशाल उसके घर पहुंचा परन्तु सदालपुत्र उसको देख कर मौन धारण कर बैठ रहा, खड़े होकर उसका सत्कार तक नहीं किया। उस समय मंखलीपुत्रने लजित होकर भगवान के गुणों का इस प्रकार वर्णन किया कि-हे देवानुप्रिय ! क्या यहां महामाहन का पधारना हुआ था ? सद्दालपुत्रने प्रश्न किया कि-तुम महामाहन किसे कहते हो?
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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