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________________ : ४२२: श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : माहन एवं सर्वज्ञ है अतः जब वह कल आयगा तो मैं उसकी अशनादिकद्वारा सेवा करुंगा। दूसरे दिन प्रातःकाल को गोशाल के स्थान पर श्रीमहावीरस्वामी का आगमन सुन कर वह अत्यन्त हर्षित हुआ और महोत्सवपूर्वक उनको वन्दना करने निमित्त गया। दूर से ही प्रातिहार्यादिक की शोभा को देख कर ऐसा विचार कर कि-अहो ! मेरे गुरु की शक्ति अचिंत्य है। वह प्रभु के समीप पहुंच उनको वन्दना कर बैठ रहा और प्रभु की देशना को श्रवण किया। फिर प्रभुने पूछा कि-"हे सद्दालपुत्र ! कल देवताने तुझे जो बात कही क्या उसका तुझे स्मरण है ?" उसने "हो" कह कर विनंति की कि-हे प्रभु ! आप मेरी कुम्हार की दुकान पर पधारिये कि-जिससे मैं आप की सेवा कर सकूँ । इस पर प्रभु वहां पधारे । मिट्टी के बर्तनों को धूप में पड़े हुए देख कर जिनेश्वरने उससे प्रश्न किया कि-हे श्रेष्ठी ! इन बर्तनों को किस उपाय से निर्माण किया ? उसने उत्तर दिया कि-हे स्वामी! मिट्टी का पिंड बना उसे चक्र पर चढ़ा कर ये बर्तन बनाये हैं । प्रभुने फिर प्रश्न किया कि-हे भद्र ! तू इन बर्तनों को उद्यमद्वारा बनाता है या बिना उद्यम ? इस प्रकार भगवान के प्रश्न करने पर उसके गोशाल के मतानुयायी नियतिवादी होने से यदि उद्योग से बनते हैं ऐसा उत्तर दे तो उसके मत
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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