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________________ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : किया है कि-जिससे तूने मेरे चित्रित पति का भी हरण कर लिया हैं ? इससे मेरी आत्मा की हत्या होगी, क्या तुझे इसका भी कुछ भय नहीं है ? ।" ___ यह सुन कर उसको दुःखी जान उन मित्रोंने प्रगट हो उसको वह चित्रपट दे अपना वृत्तान्त निवेदन किया। जिसे सुन उनको अपने पति के मित्र जान कर उसने कहा कि-"हे भाइयों ! यदि तुम सचमुच मेरे स्वामी के मित्र हो तो मुझे शोक से मुक्त करो।" यह सुन कर उन दोनोंने उसको धैर्य दे कुछ संकेत कर वहां से चल दिये। तत्पश्चात् उन्होंने सारे नगर में यह घोषणा कि-वे बड़े भारी मांत्रिक हैं और राजा के पास जाकर उन्होंने कहा कि-" हे राजा! हम मंत्रवादी हैं. अतः हमको कोई योग्य कार्य बतला कर हमें कृतार्थ कीजिये । " राजाने उनसे कहा कि-" इस कंचुक को धारण करनेवाली रूपवती स्त्री आजन्म के लिये मेरे वशीभूत हो जाय ऐसा प्रयत्न कीजिये ।" ऐसा कहने पर उन्होंने राजा के सिर पर एक तिलक कर उसको 'अनंगलेखा के पास जाने का कहा । जब वह उसके पास पहुंचा तो उसने पूर्व संकेतानुसार राजा को आता हुआ देख कर खड़ी होकर उसको आसन आदि देकर उसका सन्मान किया। यह देख कर उसको अपने आधीन हुई जान कर उसने बारंबार उसके साथ संभोग करने की याचना की। इस पर उसने उत्तर दिया कि-"हे
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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