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________________ व्याख्यान ४३ : : ३९३ : फिरते वन में वंश की जाल में बैठ कर मंत्र साधना करते हुए एक साधक को देखा । साधकने भी उन दोनों साहसिक पुरुषों को देख कर कहा कि - " हे कुमारों ! यदि तुम मेरे उत्तरसाधक वनों तो मेरा कार्य सिद्ध हो सकता है । " यह सुन कर उन दोनोंने ऐसा करना स्वीकार किया, अतः उस साधकने उनकी सहायता से अपनी विद्या सिद्ध की । विद्या के सिद्ध होने से संतुष्ट होकर उस साधकने उन दोनों को अदृश्य अंजनी, शत्रुसैन्य मोहिनी और विमानकारिणी ये तीन विद्यायें सिखाई। वहां से घूमते फिरते वे दोनों बेनातट पहुंचे। वहां लोगों के मुंह से " अपने मित्र हरिवाहन की प्रिया को वहां के राजाने हरण कर हरिवाहन को शोकातुर कर देना " आदि बाते सुन कर मित्र का विरह दूर करने के लिये वे दोनों मित्र अंजन के प्रयोग से अदृश हो अनंगलेखा के समीप गये । उस समय अनंगलेखा पट पर चित्रित अपने पति हरिवाहन के चित्र पर दृष्टि रख बैठी थी । यह देख कर उन दोनोंने उस चित्रपट को अदृश रूप से हर लिया । यह आश्चर्य देख कर अनंगलेखा नेत्रों में अशुभर बोली कि — अपराद्धं मया किं ते, यचित्रितमपि प्रियम् । जहर्ष मम हत्याया, अपि त्वं न बिभेषि किम् ? ॥१॥ भावार्थ:- " हे विधाता ! मैने तेरा क्या अपराध
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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