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________________ . १६० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : अपितु हे दत्त राजा! तू आज के सातवें दिन कुंभिपाक की वेदना भोग कर नरकगामी होगा।" यह सुन कर क्रोधित हुए दत्तने पूछा कि-" इस पर विश्वास क्यों कर हो?" सूरिने कहा कि-" तेरी मृत्यु के समय से पूर्व तेरे मुंह में मनुष्य की विष्टा गिरेगी।" दत्तने क्रोध से भर कर पूछा कि"हेमामा! तब तुम्हारी क्या गति होगी?" गुरुने कहा कि."मैं तो स्वर्ग में जाउंगा।" यह सुन कर दत्त राजा गुरु का खड्ग से प्राणान्त करने की इच्छा करता हुआ विचारने लगा कि-"यदि मैं सात दिन से अधिक जीवित रहा तो फिर अवश्य इसको मारडालूंगा। यह विचार कर सूरि को सात दिन तक नहीं जाने देने को पहरे में रख कर स्वयं अपने महल में चला गया, किन्तु उसने सूरि के वचन को अन्यथा करने के लिये एक करोड़ सुभटों को उसके चारों ओर पहरा लगाने को नियुक्त कर दिये और राजमहल तथा राजमार्ग को पूर्णतया साफ कराकर किसी भी स्थान पर किश्चिन्मात्र अशुचि न रहें इसका पूरा बन्दोबस्त कर दिया। इस प्रकार उसने छ दिन महलों में रह कर ही निर्गमन किये । सातवें दिन उसको भ्रान्ति होने से उससे सात दिन समाप्त हो गये है ऐसा जाना। और उसको आठवां दिन जान कर अश्वारूढ़ हो हर्षपूर्वक वह राजमार्ग से निकला। उस समय एक माली पुष्पों से भरा टोकरा लेकर राजमार्ग में जा रहा था। उसको मेरी वगेरा के शब्दों के
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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