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________________ व्याख्यान १७ : दुष्ट दत्त राजा उसकी माता के आग्रह से उसको वंदना करने को गया। मामा को बन्दना कर दत्त उसके सन्मुख आसन पर बैठ गया। फिर उसने सूरि से प्रश्न किया कि "हे मामा ! यज्ञ करने से क्या फल मिलता है ?" उसके उत्तर में गुरुने जीवदयारूप धर्म का उपदेश किया। तब दत्तने फिर कहा कि “ हे पूज्य ! मैं धर्म के विषय में प्रश्न नहीं करता हूँ, मैं तो यज्ञ के फल के विषे पूछता हूँ।" इस प्रकार दत्त के वारंवार पूछने पर गुरुने उत्तर दिया कि "हे दत्त! क्या तू नहीं जानता है कि यज्ञ का फल नरकगमन ही है और उस लिये तुझे भी नरक ही में जाना पड़ेगा क्यों कि लौकिक शास्त्र में भी कहा है किअस्थिन वसति रुद्रश्च, मांसे चास्ति जनार्दनः। शुक्रे वसति ब्रह्मा च, तस्मान्मांसंन भक्षयेत् ॥१॥ तिलसर्षपमानं तु, मांसं यो भक्षयेन्नरः । स नरो वर्तते नरके, यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥२॥ भावार्थ:-प्राणियों की हड्डियों में महादेव, मांस में जनार्दन( विष्णु ) और वीर्य में ब्रह्मा निवास करते हैं अतः मांसभक्षण नहीं करना चाहिये । जो मनुष्य तिल्ल और सरसों के दाने जितना भी मांस खाता है वह जब तक आकाश में सूर्यचन्द्र स्थित है तब तक नरक में रहता है।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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