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________________ : १४४ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : जो काम हो सो कहो। " योगीने उत्तर दिया कि " हे महाविद्या!जयसेना को मार डाल।" यह सुन कर वह वैताली योगी का वचन स्वीकार कर जयसेना के पास पहुंची तो उसने वहां जयसेना को सम्यक् प्रकार से निश्चल चित्त से कायोत्सर्ग में स्थित पाया। इसलिये वह वैताली धर्म की महिमा से द्वेषरहित होकर जयसेना की प्रदक्षिणा कर पीछी स्मशान को लौट गई । उसको विकराल स्वरूप में आती देख कर वह योगी भय के मारे भग गया। दूसरे दिन फिर योगीने उसी प्रकार वैताली विद्या को भेजा। उस समय भी वह विद्या जयसेना का कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकी और अट्टहास्य करती हुई वापस लौट गई । इस प्रकार योगीने उसको तीन बार भेजा लेकिन तीन ही बार असफल होकर वापस लौट आई। चोथी बार खुद के मरण के भय से ही योगीने कहा कि "हे देवी! दोनों में से जो दुष्ट हो उसीको मार डालो।" यह सुन कर देवी जयसेना के पास पहुंची परन्तु उसको देवगुरु की भक्ति में तत्पर देख कर यहां से वापस लौट गई । लौटते समय घर के बाहर कायचिंता के लिये निकली हुई प्रमादी गुणसुन्दरी को उसने देखा इस लिये उसको खड्ग द्वारा मार कर देवी स्मशान को लौटी और योगी की आज्ञा ले कर स्वस्थान को चली गई। थोड़ी देर बाद जयसेना कायोत्सर्ग पार कर बाहर निकली तो वहां गुणसुन्दरी को मरी हुई देख कर वह विचारने लगी कि-अहो!
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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