SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ११६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : लकतिगंइगनवइ, सहस्स विसा यतिन्निसया य। जोइस वजिऊणं, तिरियं जिणबिंबसंख इमा ॥२॥ भावार्थ:-तीन लाख इकाणुं हजार तीन सो बीस शाश्वत जिनबिंब ज्योतिषी के अतिरिक्त तिर्छा लोक में हैं। तेरस कोडिसयाई,गुणनवइ कोडि सट्ठि लकाइं। भुवणवइणं मज्झे,जोइसियभुवणेसुय असंखा।३। .. भावार्थ:-तेरा सो नेवाशी करोड़ और साठ लाख शाश्वत जिनबिंब भुवनपति में हैं, और ज्योतिषी के भुवन (विमान ) में तो असंख्यात हैं। कोडि सयाइं पन्नरस,कोडि बायाल लरक अडवन्ना। छत्तीसं पुण सहसाइं, असिहियाओ सवगं ॥४॥ ___ भावार्थ:-पन्द्रह सो बियालीस करोड़, अठावन लाख, छतीस हजार और अस्सी-इतनी शाश्वत जिनबिंबों की कुल संख्या है ( यह संख्या व्यंतर और ज्योतिषी के अतिरिक्त समझना चाहिये ।) अशाश्वता अर्थात् भरतचक्रीद्वारा निर्मित जिनबिंब । · श्रुत अर्थात् द्वादशांगी आदि सूत्र । प्रवचन-चतुर्विध संघ । आचार्य-गच्छाधिपति । उपाध्याय-वाचना प्रदान करनेवाले (मुनियों को पढ़ानेवाले) तथा दर्शन-जिन
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy