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________________ : ११५ : व्याख्यान १२ : का परित्याग करना यह समकितसूचक दश प्रकार का विनय है । विस्तरार्थः – सुर और असुर आदि द्वारा की पूजा को जो अहं के लायक हो वह अर्हत् कहलाती है । उक्कोसं सत्तरिसयं, जहन्न वीसा य दस विहरति । जम्मं पइ उक्कोसं, वीसं दस हुंति जहन्ना ॥१॥ भावार्थ:- एक काल में उत्कृष्ट से एक सो सीत्तेर और जघन्य से बीस या दस तीर्थकर विचरते हैं । जन्म द्वारा उत्कृष्ट से बीस एक काल में जन्मते हैं और जघन्य से एक काल में दस तीर्थकर पैदा होते हैं । सिद्ध अर्थात् जो कृतकृत्य हो गये हैं । मुनि अर्थात् मनन करने के स्वभाववाले, सत्य वचन के प्रकाशक । धर्म - एक से लगा कर क्षांत्यादि दश प्रकार का । चैत्य-तीन भवनों के शाश्वत और अशाश्वत जिनभवन । उन में शाश्वत जिनबिंबों की संख्या इस प्रकार है: 1 देवेसु कोडिसयं, कोडि बावन्न लरक चउणवइ । सहसा चउआलीसं, सत्तसया सट्ठी अप्भहिआ | १ | भावार्थ:- देवलोक में ( वैमानिक में) एक सो बावन करोड़, चोराणुं लाख, चवालीस हजार सात सो साठ शाश्वत जिनबिंब हैं ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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