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________________ : १०६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : वह संवर मेरे जैसा स्वेच्छाचारी को - सर्व प्रकार से पतित को कहाँ से हो ? नहीं हो सकता । तो मुझे उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकार विचार कर पहले वो मुनि जिस स्थान पर खड़े थे उसी स्थान पर वह भी उसे मुनि के समान कायोत्सर्ग कर खड़ा हो गया और प्रतिज्ञा की कि जब तक स्त्रीहत्या का पाप स्मरण में आवे तब तक मेरे देह को मैं बोसराता हूँ अर्थात् तब तक मैं कायोत्सर्ग में रहूँगा । अब भावमुनि हुए चिलाति पुत्र का शरीर रुधिर से व्याप्त था इस लिये उसके गंध से असंख्य चीटियें एकत्रित हो कर उसके शरीर को छेद छेद कर चलनी के समान बना दिया । वे चीटियें पैर से खाती खाती मस्तक पर आ निकली । इस प्रकार अढ़ाई दिन तक महातीव्र वेदना को सहते हुए भी वे किंचित् मात्र भी विचलित नहीं हुए । अन्त में आयुष्य पूर्ण कर वे महात्मा मृत्यु को प्राप्त कर आठवें सहस्रार देवलोक में देवता हुआ । हे भव्य प्राणियों ! सद्वाक्य के अर्थ को बुद्धिपूर्वक विचार कर चिलातिपुत्रने बड़े पाप का नाश किया इसी प्रकार यदि तुम भी आश्रवों का त्याग करोगे तो तुम्हारे हाथ में ही मोक्षलक्ष्मी क्रीड़ा करेगी । इत्यब्ददिनपरिमितोपदेशप्रासादग्रंथस्य वृत्तौ प्रथमस्थभे दशमं व्याख्यानम् ॥ १० ॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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