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________________ व्याख्यान १० : : १०५ : उसने एक मुनि को कायोत्सर्ग करते देखा । उनके समीप जाकर चिलातिपुत्रने कहा कि हे मुनि ! मुझे शीघ्र धर्मोपदेश सुनाइयें, अन्यथा मेरी खड्गद्वारा इस स्त्री के मस्तक के समान मैं तुम्हारा मस्तक भी धड़ से अलग कर दूंगा । यह सुन कर मुनिने उसे योग्य पात्र समझ कर संक्षेप से "उपशम, विवेक और संवर" ये तीन पद कहे। तत्पश्चात् नवकार मंत्र बोलते हुए वे मुनि आकाशमार्ग से अन्तरध्यान हो गये । मुनि के कहे हुए पदों का स्मरण कर वह चोरपति विचार करने लगा कि "उपशम का क्या अर्थ है ?" विचार करते करते उसके मन में समझ पड़ी की उपशम अर्थात् क्रोध की शान्ति, यह उपशम तो मेरे में कहाँ है ? बिलकुल नहीं | ऐसा विचार कर उसने अपने हाथ में से क्रोध के चिन्हभूत खड्ग को फैंक दिया। फिर उसने विवेक पद का यह अर्थ लगाया लायक ) के लिये प्रवृत्ति करना और निवृत्ति करना इसे विवेक कहते हैं, इस विवेक से धर्म होता है । ऐसा विवेक मेरे में कहां है ? क्यों कि दुष्टता को सूचित करनेवाला स्त्री का मस्तक तो मेरे हाथ में है । ऐसा विचार कर उसने स्त्री के मस्तक को संवर का अर्थ विचारते हुए उसने इन्द्रियों और मन का निरोध करना विचार करते हुए कि - कृत्य ( करने अकृत्य के लिये r त्याग किया । फिर समझा कि पांचों संवर कहलाता है ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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