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________________ जीवन की क्षण-भंगुरता को भूल कर हर व्यक्ति अपनी कामेच्छा को पूर्ण करने में लगा हुआ है। मानव को प्राप्त पाँचों इन्द्रियों को यह विचित्रता है कि वे अनुकूल सामग्रो के मिलने पर भी कभी तृप्त नहीं बनती हैं। इस प्रकार सतत दौड़धूप कर रहे जीवात्मा को इस संसार में स्वस्थता व शान्ति कहाँ से प्राप्त हो सकती है। हर नई इच्छा मनुष्य की शान्ति को समाप्त कर देती है, फिर भी पाश्चर्य है कि मनुष्य उन इच्छाओं पर रोक न लगाकर उन्हें बढ़ावा ही दे रहा है। इस प्रकार वासनाओं और इच्छाओं से अतृप्त मानव सदैव अशान्ति का ही अनुभव करता है। उपायानां लक्षः कथमपि समासाद्य विभवं , भवाभ्यासात्तत्र ध्र वमिति निबध्नाति हृदयम् । अथाकस्मादस्मिन्विकिरति रजः क्रूरहृदयो , रिपुर्वा रोगो वा भयमुत जरा मृत्युरथवा ॥ २०३ ॥ (शिखरिणी) अर्थ-लाखों उपाय करके महाकष्ट से लक्ष्मी प्राप्त कर 'यह लक्ष्मी सदा रहने वाली है' ऐसा मानकर गत भवों के अभ्यास के कारण आत्मा उसमें मोहित बनती है। परन्तु इतने में क्रूर हृदय वाले शत्रु, रोग, भय, जरा अथवा मृत्यु आकर मचानक ही उसमें धूल डाल देते हैं ।। २०३ ।। शान्त सुधारस विवेचन-१८८
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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