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________________ हे प्रात्मन् ! तू ऐसे पवित्र और शुद्ध ब्रह्मचर्य को अपने जीवन में आत्मसात् कर। इसके साथ ही सद्गुरु के मुख से निकलती हुई अमृत-वाणी का निरन्तर पान कर। जिनवाणी का प्रतिदिन श्रवण करना चाहिये, इससे जिनेश्वर के मार्ग का सत्य बोध होता है और जीवन में प्रात्मकल्याण के पंथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है । सद्गुरु की वाणी तो अमृत समान है। इस वाणी ने तो अनेक प्रात्मानों को जीवनदान दिया है। ० संयम - वाङ्मय - कुसुमरसैरिति सुरभय निजमध्यवसायम् । चेतनमुपलक्षय कृत - लक्षण ज्ञान-चरण-गुरण - पर्यायम् ॥ शृणु० १०८ ॥ अर्थ-संयम और शास्त्र रूप पुष्पों से अपने अध्यवसायों को सुगंधित करो और ज्ञान-चारित्र रूप गुण और पर्याय वाले चेतन के स्वरूप को बराबर समझ लो ।। १०८ ॥ विवेचन संयम से अपने अध्यवसाय शुद्ध करो प्रात्मा अपने अध्यवसाय के अनुसार ही कर्म का बंध अथवा निर्जरा करती है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ध्यान में ही लीन थे। सूर्य की आतापना भी ले रहे थे, किन्तु अशुभ अध्यवसाय की धारा के कारण ७वीं नरकभूमि में गमन योग्य कर्मदलिकों को शान्त सुधारस विवेचन-२६९
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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