SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रिया अथवा जिस क्रिया में क्रोध को बहुलता हो, वह प्रादेषिकी क्रिया कहलाती है। ४. पारितापनिकी क्रिया-ताड़ना-तर्जना आदि द्वारा किसी को हैरान-परेशान करने की क्रिया को पारितापनिकी क्रिया कहते हैं। ५. प्रारणातिपातिकी क्रिया- किसी भी जीव के प्राणों का नाश करने वाली क्रिया प्रारणातिपातिकी क्रिया है। ६. प्रारम्भिकी क्रिया- छह काय के जीवों के वधस्वरूप प्रारम्भ-समारम्भ की क्रिया को प्रारम्भिकी क्रिया कहते हैं। ७. पारिग्रहिकी क्रिया--- धन-धान्य आदि का परिग्रह करना, उन पर मूर्छा करना, इत्यादि पारिग्रहिकी क्रिया है। ८. माया-प्रत्ययिकी क्रिया- छल-कपट आदि द्वारा किसी को ठगने की प्रवृत्ति को माया-प्रत्य यिकी क्रिया कहते हैं। ६. मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया- मिथ्यादर्शन द्वारा प्ररूपित प्रवृत्ति करना। सर्वज्ञकथित हेय पदार्थ को उपादेय व उपादेय को हेय मानना-इत्यादि मिथ्यादर्शन प्रत्यायकी क्रिया है । १०. अप्रत्याख्यानिकी क्रिया-प्रविरति के तीव्र उदय से किसी प्रकार के पाप-त्याग की प्रतिज्ञा न करना, अप्रत्याख्यानिकी क्रिया है। ११. द्रष्टिकी क्रिया-जीव-अजीव पदार्थ के किसी पर्यायविशेष को राग दृष्टि से देखना, द्रष्टिकी क्रिया है। १२. स्पृष्टिकी क्रिया-रागपूर्वक स्त्री, पुत्र आदि के शरीर का स्पर्श करना, स्पृष्टिकी क्रिया कहलाती है । शान्त सुधारस विवेचन-२१६
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy