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अष्टपाहुडभाषा वचनिका। . अर्थ-जो करने... समर्थ हूजे सो तौ कीजिये बहुरि जो करनैकू नहीं समर्थ हूजिये सो श्रद्धिए जातें केवली भगवान. श्रद्धान करनेवालैक सम्यक्त्व कह्याहै ॥ २२ ॥
भावार्थ-इहां आशय ऐसा है जो कोऊ कहै सम्यक्त्व भये पीछे तौ सर्व परद्रव्य संसारकू हेय जानियेहे सो जाकू हेय जानें ताकं छोड़े मुनि होय चारित्र आचरै तब सम्यक्त्व भया जानिये, ताका समाधानरूप यह गाथा है जो सर्व परद्रव्यकू हेय जानि निज स्वरूपकू उपादेय जान्यां श्रद्धान किया तब मिथ्याभावतौ मिट्या परंतु चारित्रमोहकर्मका उदय प्रबल होय जेतें चारित्र अंगीकार करनेकी सामर्थ्य नहीं होय तेतै जेती सामर्थ्य होय तेता तो करै तिस सिवायका श्रद्धानकरै, ऐसें श्रद्धान करनेवालाहीकै भगवान सम्यक्त्व कह्या है ॥२२॥ ___ आगैं कहैं हैं, जो ऐसैं दर्शन ज्ञान चारित्र विर्षे तिष्ठें है ते वंदिवे योग्य हैं;गाथा-दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था ।
एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ॥२३॥ संस्कृत-दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनये नित्यकालसुप्रस्वस्थाः।
___ एते तु वन्दनीया ये गुणवादिनः गुणधराणाम् २३ __ अर्थः-दर्शन ज्ञान चारित्र तथा तप विनय इनिवि जे भले प्रकार तिष्ठं है ते प्रशस्तहैं सराहने योग्य है अथवा भलै प्रकार स्वस्थ हैं लीन हैं, बहुरि गणधर आचार्य हैं तिनिके गुणानुवाद करनेवाले हैं ते वन्दने योग्य हैं । अन्य जे दर्शनादिक रौं भ्रष्ट हैं अर. गुणवाननितें मत्सरभाव राखि विनयरूप नहीं प्रवर्ते हैं ते वन्दिवेयोग्य नाहींहैं ॥२३॥
अ. व. ३